यूं तो कोरोना महामारी ने इंसानियत को बहुत से सबक दिए हैं पर जो एक खास चीज दी है वो है फेस मास्क।फेस मास्क कपडों की ही तरह हमारे तन के हिस्से को ढकंने का जरूरी आवरण बन गया है। सफेद शर्ट के साथ हरी पेंट पहनने पर भले आपको कोई ना टोके लेकिन फेस मास्क ना पहनने पर चालान तक कट जाता है। उस पर से फैशन डिजाइनर्स ने फेस मास्क में भी कलाकारी दिखानी शुरू कर दी है, यानि जिस रंग का लिबास उस तरह का मास्क।
मास्क हमेशा से इतने सहज व सुंदर नहीं रहे। आज हम जितनी आसानी से फेस मास्क पहन कर बदल लेते हैं, सदियों पहले तो मास्क पहनने से जख्म हो जाया करते थे। आखिर फेस मास्क की यात्रा आसान कैसे बनी होगी? आइए जानते हैं।
चमड़े से बनाया गया था मास्क
फेस मास्क के उपयोग पर कोरोना काल में जितना जोर दिया गया है उतना पहले नहीं दिया गया पर ऐसा नहीं है कि लोग मास्क की उपयोगिता को समझते नहीं थे। अगर आप गौर करें तो अपने स्वास्थ्य के प्रति सबसे जागरूक माने जाने वाले जापानी पर्यटक ज्यादातर मास्क का उपयोग करते हैं। मास्क के उपयोग पर पहली बार बल दिया गया जब ब्लैक प्लेग से दुनिया का सामना हुआ।
काफी समय में वैज्ञानिक ये समझ पाए कि संक्रमण फैलने का सबसे आसान तरीका है श्वास। इसलिए जरूरी है कि एक व्यक्ति की श्वास को दूसरे व्यक्ति तक पहुंचने से रोका जाए। लंदन में रहने वालों ने बीते 500 साल में कई बार मास्क का इस्तेमाल किया है। मास्क के इतिहास पर गौर करें तो छह ईस्वी पूर्व से लोग इसका इस्तेमाल करते आए हैं।
इसके सबूत के तौर पर फ़ारस के मक़बरों की रखवाली करने वालों की बात की जा सकती है। जो हमेशा अपने चेहरे और खास तौर पर मुंह को ढांक कर रखा करते थे। मार्को पोलो के अनुसार 13वीं सदी के चीन में नौकरों बुर्कों में ढंककर रहना होता था। हालांकि उसकी धारणा ये रही कि राजा के भोजन पर नौकरों की श्वास का असर ना हो।
1347 से 1351 के बीच ब्लैक डेथ प्लेग के कारण यूरोप समेत अन्य देशों में 250 लाख लोगों की मौत हो गई। इसके बाद यहां डॉक्टर ख़ास मेडिकल मास्क का इस्तेमाल करने लगे। इसके बाद 17वीं शताब्दी में जब प्लेग ने दोबारा दस्तक दी तक चिड़िया के आकार वाला मास्क पहने एक व्यक्ति का चित्र जागरूकता के लिए तैयार किया गया। ताकि लोग खुद के मुंह और नाक ढांक कर रखना सीखें।
प्लेग के दौर में जो मास्क बनाए गए उन्हें लगाने से घुटन महसूस ना हो इसलिए उनमें इत्र और खुशबूदार जड़ीबूटियां का इस्तेमाल किया गया। 1665 के दौर में ग्रेट प्लेग का इलाज कर रहे डॉक्टर्स के लिए पीपीई किट और मास्क बनाएं गए। जो खास तौर पर चमड़े से बना होता था और जिसमें ट्यूनिक, आंखों पर कांच के चश्मे, हाथों में ग्लव्स और सिर पर टोपी पहनी जाती थी। यह पीपीई किट और मास्क पहनना इतना मुश्किल था कि डॉक्टर्स जख्मी हो जाया करते थे।
जहर से बचने के हथियार
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सैनिकों ने फेस मास्क का उपयोग किया है। पुरानी तस्वीरों से ये साफ होता है कि सैनिक मास्क की उपयोगिता समझते थे और उनके आदि थे। इसके बीस साल बाद के ग्रेट वॉर में रसायनिक हथियार- क्लोरीन गैस और मस्टर्ड गैस का इस्तेमाल हुआ। तब सरकारों ने खुद जनता से अपील की थी कि वे मास्क का उपयोग करें। 1938 में सड़कों पर पुलिस वालों ने खुद जनता को रेस्पिरेटर बांटे थे।
यहां तक की बीक स्ट्रीट के मर्रे कैबरे डांसर तक रेस्पिरेटर को मास्क के तौर पर उपयोग करते हुए डांस करती थीं। इतना ही नहीं चेसिंगटन चिड़ियाघर में जानवरों के चेहरों का नाप लिया गया था, ताकि उनके चेहरों के लिए ख़ास मास्क बनाए जा सकें। घोड़ों के चेहरों पर जो मास्क लगाया गया था को एक थैले की तरह दिखता था जिसके उनके नाक को ढंकता था।
यानि धरती के हर सजीव प्राणी को मास्क पहनाया जा रहा था। अगर शुरूआती मास्क की बात की जाए तो लोग चमड़े के बने मास्क पहना करते थे। चीन और मंगोल में जानवरों की खाल से बने मास्क और दस्ताने उपयोग में लाए गए। जंग में सैनिक लोहे से बने मास्क पहना करते थे। ताकि दुश्मन के वार से सुरक्षित रहते हुए खुद की पहचान छिपाई जा सके।
त्रासदी ने दिए कई सबक
18वीं सदी की औद्योगिक क्रांति में यूरोप की जनता ने पहली बार वायु प्रदूषण का सामना किया। साल 1952 में दिसंबर महीने की पाँच तारीख़ से लेकर नौ तारीख़ के बीच अचानक यहां कम से कम 4,000 लोगों की मौत हो गई थी। एक अनुमान के अनुसार इसके बाद के सप्ताहों में क़रीब 8,000 और लोगों की मौत हो गई। ये सब हुआ था वायु प्रदूषण के कारण।
साल 1930 में यहां लोगों ने सिर पर टोपी लगाया करते थे। लेकिन प्रदूषण ने टोपी के साथ मास्क का उपयोग करना भी सिखा दिया। लंदन में महिलाएं खुद को ढंक कर रखना पसंद करती थीं। वो गहनों के साथ-साथ चोगे की तरह के कपड़े पहनना पसंद करती थीं और चेहरे को भी एक जालीदार कपड़े से ढंकना पसंद करती थीं। ये इसलिए भी था ताकि बाहरी प्रदूषण से खुद को बचाया जा सके।
आम लोगों से प्रशासन ने अपील की कि वो अपनी जान बचाने के लिए मास्क का इस्तेमाल करें। कई लोगों ने ख़ुद अपने लिए मास्क बनाए और कई लोग तो नाक के नीचे पहने जाने वाले मास्क में डिसइन्फेक्टेंट की बूंदे भी डाला करते थे। फिर मास्क के फैशन में बदलावा आया। ये एक तरह का बड़ा कपड़ा हुआ करता था जो पूरे चेहरे को ढंकने में मदद करे।
जब दुनिया का सामना संक्रामक बीमारियों से हो रहा था तभी लोग मास्क का उपयोग करना, सामाजिक दूरी का पालन करना और सैनेटाइजेशन की जरूरतों को समझना शुरू कर रहे थे।मुगलकालीन सभ्यता हो या यूरोपीय संस्कृति, चेहरा ढांकना एक आम चलन रहा है। संक्रमण से बचने के अलावा लोग अपने दुश्मनों और फैंस से बचने के लिए भी फेस मास्क का उपयोग करते रहे हैं।
भले ही समय के साथ इसका चलन कम या ज्यादा होता रहा हो पर अब फेस मास्क को न्यू नॉमर्ल कहा जा सकता है। इसलिए मास्क पहनते रहिए। वैज्ञानिक बताते हैं कि सभी तरह से मास्क पहनने से एक व्यक्ति की श्वास से निकालने वाले 84 प्रतिशत संक्रमक कण दूसरे तक नहीं पहुंच पाते। अगर दो लोग मास्क का उपयोग कर रहे हैं तो वे 96 प्रतिशत तक संक्रमण के खतरे को कम करते हैं।