पदम पति शर्मा
प्रधान संपादक

खाकी वर्दी तो दागदार है ही लेकिन काले कोट वालों की हरकत तो निष्पक्षत: गयी गुजरी हो चुकी है।  मेघालय के मुख्यमंत्री की आत्महत्या के पूर्व लिखी डायरी गुगल पर है, आंख खोलने वाली सच्चाई है उसमें पढ़ कर देखिये तो सही। 

दिल्ली में पिछले दिनों तीस हजारी अदालत में जो कुछ भी हुआ, उसने सभी के गले का स्वाद बिगाड़ कर रख दिया। नो पार्किंग जोन में कार पार्क करने को लेकर पुलिस और वकील के बीच हुआ विवाद आज समूचे देश में चर्चा का विषय बन चुका है।

दो राय नहीं, बात इतनी बढ़ी कि सैकड़ों वकीलों ने पांच पुलिसकर्मियों की बुरी तरह से पिटाई शुरू कर दी। उनके हथियार भी छीनने की कोशिश हुई। शायद एक की पिस्तौल भी ले ली गयी। जो चीज हाथ लगी, उससे पीटा गया। जान बचाने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी। दो वकील घायल हुए। खून से लथपथ एक अधिवक्ता का वीडियो दिखा और बस शुरू हो गयी वकीलों की गुंडई की पराकाष्ठा।

अपने साथियों के घायल होने से वकीलों का गुस्सा बेशक जायज था। लेकिन अति उत्तेजना में जिस तरह की हिंसक प्रतिक्रिया उनकी ओर से लगातार जारी रही, जिस कदर कानून के झंडाबरदार शर्मनाक हरकत पर उतरे उससे आम जन की सहानुभूति उन्होंने खो दी। लम्पट से अंदाज में सड़क पर राह चलते लोगों के साथ भी जिस तरह की भद्दगी हुई उसने सोचने पर मजबूर कर दिया कि ये कानून के पहरुए हैं या गुण्डे बदमाश।  

यह नहीं कहा जा सकता कि काला कोट धारण करने वाली समूची बिरादरी ही ऐसी है। ऐसे भी हैं इस जमात में जो मनसा, वाचा, कर्मणा श्रद्धा और सम्मान के पात्र हैं। लेकिन यह कहने मे हिचक नहीं कि बेरोजगारी से पीड़ित आज की युवा पीढ़ी कानून की पढाई करने के बाद जब उसे पेशा बनाती है तो चिकित्सकों की तरह वह सारे धतकरम करते देखी जा सकती है जो उनके डिग्री लेते वक्त शपथ का घोर उल्लंघन है।

हम पुलिस को अच्छी नजर से नहीं देखते। क्योंकि हम उनकी विवशता और कुण्ठा से अनजान हैं । उनके साथ आज के युग में भी जानवरों से भी बदतर सुलूक किया जाता है। काम के घंटे निर्धारित शायद कागजो पर ही हैं। पुलिस लाइन में बाबुओ को पूजने पर भी आसानी से उनको छुट्टी तक नहीं मिलती। बैल जैसी खटनी से उनमें उपजा रोष जनता पर निकलता है। सिक्के का यह दूसरा पहलू वाकई भयावह है।

डेढ़ दशक से भी ज्यादा का समय गुजर चुका है। पुलिस और न्यायिक सुधार की फाइल धूल फाँक रही है। इस ओर मैने कई बार सोशल मीडिया के माध्यम से इस सरकार का भी ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया, जो गुड गवर्नेन्स की माला जपती है। परन्तु इसके लिए ये दो ही जो जरूरी तत्व हैं उनकी वो अनदेखी करती रही है आज तक।

पुलिस के साथ अंग्रेजों के जमाने का आचरण आज भी हैं। आईपीएस और पीपीएस के ठाठ भी उसी तरह के हैं। ढेर सारे अर्दली सेवा के  लिए आज भी उनको मिलते हैं। 

इन अफसरों को अपने मातहतो के लिए आजादी बाद ही सामने आ जाना चाहिए था मगर नहीं आए। मुझे याद आती है छात्र जीवन की वह भयानक त्रासदी। खुद पर अत्याचार के विरोध भे 1973 की गर्मियों में बनारस रियासत की कभी राजधानी रही रामनगर में पुलिस- पीएसी विद्रोह की वह घटना जिसमें सेना बुलानी पड़ गयी थी। मेजर जाली की शहादत भी याद है और याद है उस समय बगावती जवानों पर गोली चलाने का आदेश देने वाले सिटी मजिस्ट्रेट सर्वानंद सिंह भी जो घिर जाने के बाद नाले मे कोहनी के बल सरकते हुए जान बचाने मे सफल हो सके थे। कितने ही खाकी वर्दी वाले उस विद्रोह में मारे गये थे। इस घटना से मुख्यमंत्री को जाना पड़ा था। बहुत हो हल्ला मचा। मगर पुलिस की यूनियन बनाने की माँग पूरी नहीं की गयी। आज सुना कि केन्द्र सरकार ने उनकी यह माँग मान ली है। 

दस घंटे तक दिल्ली मे पुलिसकर्मी अपने मुख्यालय के बाहर धरना देते रहे। उनके परिवार ने भी आक्रोश में घंटो सड़क जाम कर रखी थी। गृह मंत्री को दखल देना पड़ा और पुलिस की सारी माँगे मान ली गयी। पता नहीं उन पर कब अमल होगा ? लेकिन एक बात तो तय है कि देश के समस्त बार एसोसिएशनॅ को वकीलों के लिए भी कड़ी आचार संहिता बनानी होगी। कहते हैं न कि न्यायपालिका में नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार है। लेकिन उसके लिए सबसे ज्यादा क्या काले कोट वाले जिम्मेदार नहीं हैं ? जिन्होंने कोर्ट के चक्कर काटे हैं वे इसकी तस्दीक करेगे कि कैसी लुट खसोट होती है मुअक्किल के साथ।

समय की माँग है मोदी जी करिये पुलिस और न्यायपालिका का आधुनिकीकरण, यदि आप सच में चाहते हैं भ्रष्टाचारमुक्त भारत।

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