लक्ष्मीकांत द्विवेदी
आधुनिक राजनय का यह अलिखित नियम है कि, जब भी कोई देश अपने यहां कोई बड़ा फैसला करता है, तो वह विश्व समुदाय को उसकी विस्तृत जानकारी देता है, ताकि विरोधियों को उसे लेकर दुष्प्रचार करने का मौका न मिले। लेकिन अमेरिका द्वारा नागरिकता कानून और एनआरसी पर चिंता व्यक्त करते हुए मोदी और ट्रम्प के बीच बातचीत के दौरान इसके साथ-साथ धार्मिक स्वतंत्रता का भी मुद्दा उठाने की बात करना इस मामले में भारतीय विदेश मंत्रालय की नाकामी और उसकी अकर्मण्यता को ही दर्शाता है। मोदी सरकार में जब तक विदेश मंत्रालय की कमान सुषमा स्वराज के हाथों में थी, देश को कभी भी ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा था। लेकिन उनके बाद जब पूर्व विदेश सचिव एस. जयशंकर को यह जिम्मेदारी सौंपी गयी, तो इस बात की उम्मीद जताई गयी थी कि, वह इस अहम् मंत्रालय का कामकाज बेहतर तरीके से सम्पादित करेंगे। लेकिन अब यदि इस तरह की छोटी-छोटी बातें भी प्रधानमंत्री को ही समझानी पड़े, तो उनकी कार्यकुशलता पर सवाल उठना लाजिमी है। वैसे इसके साथ ही यह भारत विरोधियों के प्रचारतंत्र की मजबूती को भी रेखांकित करता है।
उल्लेखनीय है कि, भारत दौरे से पहले अमेरिकी प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों ने सीएए और एनआरसी पर कहा है कि हम इसे लेकर चिंतित हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ इन सभी मुद्दों पर बातचीत करेंगे। जानकारों के मुताबिक, इसकी नौबत इस वजह से आयी है कि, विदेश मंत्रालय अमेरिका जैसे मित्र एवं महत्वपूर्ण देश को भी यह समझाने में नाकाम रहा कि, एनआरसी अभी केवल असम में लाया गया है और वह भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर और उसकी निगरानी में। अभी इसे पूरे देश में लागू करने के संबंध में कहीं कोई विचार ही नहीं किया गया है, उसके प्रावधान ही तय नहीं किये गये हैं, तो उस पर चिंतित होने का कोई औचित्य ही नहीं है। जहां तक बात नागरिकता कानून (सीएए) की है, तो यह सुविधा अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार सभी अल्पसंख्यकों को दी जाएगी, सिर्फ किसी खास धर्म के अनुयायियों को नहीं। इसमें मुस्लिमों को इस वजह से शामिल नहीं किया गया है कि, इन तीनों देशों के मुस्लिमों ने ही संघर्ष कर धार्मिक आधार पर भारत का विभाजन कराया था और उन्हें मुस्लिम देश घोषित किया था। वहां वे भारी बहुमत में हैं और अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार का हिस्सा हैं। अत: उनके धार्मिक आधार पर उत्पीड़न का सवाल ही नहीं है। भारत की सहानुभूति पीड़ित अल्पसंख्यकों के साथ है, उत्पीड़न करने वालों बहुसंख्यकों के साथ नहीं। हां, यदि किसी का अन्य किसी कारण से उत्पीड़न किया जा रहा है तो उसके आवेदन पर सामान्य कानून के हिसाब से ही विचार होगा। उन्हें सामूहिक रूप से इस तरह की कोई सुविधा देना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं है। जहां तक इससे धर्मनिरपेक्षता के उल्लंघन का सवाल है, तो धार्मिक आधार पर भेदभाव न किये जाने की बात केवल भारत के नागरिकों के संदर्भ में है। अंतरराष्ट्रीय मामलों में इसे हर मामले के हिसाब से अलग-अलग ही देखना उचित और तर्कपूर्ण होगा। जहां तक भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का सवाल है, तो पूरी दुनिया को यह समझ लेना चाहिए कि, जब उसने इस शब्द का इजाद भी नहीं किया था, भारत में यह तब से लागू है। हिन्दुओं या सनातन धर्मावलम्बियों ने कभी किसी के उपासना स्थल नहीं तोड़े, कभी किसी पर जजिया कर नहीं लगाया, कभी किसी को डरा-धमकाकर या प्रलोभन देकर धर्मान्तरण नहीं कराया। आज भी कहीं ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। खैर भले ही विदेश मंत्रालय अमेरिका समेत दुनिया भर के देशों को यह सीधी सी बात न समझा पाया हो, लेकिन उम्मीद है कि, प्रधानमंत्री मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति को यह अच्छी तरह समझा पायेंगे।
वैसे व्हाइट हाउस का यह कहना ठीक ही है कि अमेरिका भारत की लोकतांत्रिक परंपराओं और संस्थानों का बहुत सम्मान करता है। भारत दौरे से पहले अमेरिकी प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि अपने भारत दौरे पर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ धार्मिक स्वतंत्रता के मुद्दे पर भी बात करेंगे, जो अमेरिकी प्रशासन के लिए बेहद अहम है। अमेरिकी प्रशासन के मुताबिक राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बैठक में बतायेंगे कि दुनिया यह देख रही है कि भारत अपनी लोकतांत्रिक मान्यताओं में आगे बढ़ रहा है। अधिकारी का कहना है कि डोनाल्ड ट्रंप प्रधानमंत्री मोदी के साथ बातचीत में साझा लोकतंत्र, व्यक्तिगत और सार्वजनिक स्वतंत्रता की भी बात करेंगे।
गौरतलब है कि, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दो दिन की यात्रा पर भारत आ रहे हैं। उनकी ये यात्रा 24 और 25 फरवरी को होगी। इस दौरान डोनाल्ड ट्रम्प गुजरात के अहमदाबाद के अलावा दिल्ली और आगरा भी जाएंगे।