डॉ. रजनीकांत दत्ता
पूर्व विधायक, शहर दक्षिणी
वाराणसी ( यू पी )

जिस जातीय समूह की जितनी आबादी, सत्ता में उसी हिसाब से उसकी भागीदारी। लोकतंत्र के इस बीज मंत्र का जब राजनीतिकरण हुआ तो यह देश में जनसंख्या विस्फोट का कारण बन गया।

यह सर्वविदित तथ्य है कि, जब किसी देश की प्रति हेक्टेयर जनसंख्या का घनत्व अंतरराष्ट्रीय मानकों से अधिक हो जाता है, तो यह जितना ज्यादा अधिक होता है उतना ही ज़्यादा उस देश और देशवासियों के हित से संबंधित जो भी सुविधाएं होती हैं, वह शनैः-शनैः नष्ट होने लगती हैं। फलस्वरूप आधारभूत सुविधाओं के अभाव से उत्पन्न कुंठा पहले आक्रोश और फिर गृह युद्ध का रूप लेने लगती है।

इससे देश की एकता, अखंडता और नागरिक समरसता ही नहीं प्रभावित होती, बल्कि उसकी आंतरिक और बाह्य सुरक्षा और अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है।

इसमें वर्तमान का बहुदलीय संसदीय प्रजातंत्र, कोढ़ में खाज की तरह एक विचारणीय अभिशाप है। यही वजह है कि, जनसंख्या नियंत्रण का इतना जरूरी काम भी वोट बैंक की तुष्टीकरण की राजनीति के कारण आजतक नहीं हो पाया।

1977 की इमरजेंसी के दौरान स्वर्गीय संजय गांधी जी ने हम दो और हमारे दो के नारे के साथ जनसंख्या नियंत्रण की इस मुहिम को शुरू किया था। लेकिन उसे लागू करने का जोरजबरदस्ती वाला सरकारी व्यवस्था का जो तरीका था उससे यह मुहिम फ्लॉप हुई।

भारतवर्ष शुरू से ही एथनिक कंट्री रहा है। यानी की धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र, भाषा और जाति के नाम पर आज़ादी के पहले का भारत भी मानसिक और व्यावहारिक रूप से टुकड़े-टुकड़े में बंटा हुआ था। यह बात दीगर है कि हम उसे एकता में अनेकता, गँगा-जमुनी तहजीब और आपसी भाईचारे का नाम दे कर खुद को तसल्ली दे देते थे। यानी कि गालिब, दिल बहलाने को यह ख्याल अच्छा था, लेकिन इसमें कोई वास्तविकता न थी, न है और न हो सकती है।

1947 में धर्म के आधार पर यह देश बंट गया। एक तरफ निज़ाम-ए-मुस्तफा का पाकिस्तान और दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्ष एथिनिक भारत।
फलस्वरूप, जो भारतवर्ष की डेमोक्रेटिक निर्वाचन प्रणाली है, उसके कारण देश का धार्मिक, जातीय, भाषाई और क्षेत्रीय समीकरण, यानी की डेमोग्राफिक पैटर्न बदलने के लिए कुछ समूह राष्ट्रहित की परवाह किये बिना अंधाधुंध बच्चे पैदा करने लगे, ताकि आम चुनाव में बहुमत के आधार पर वे केंद्रीय सत्ता पर काबिज़ हो सकें।

इस होड़ का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ कि, देश का प्रति हेक्टेयर जनसंख्या घनत्व तेजी से बढ़ने लगा। चाहे किसी भी दल की सरकार हो, जब वह लोक कल्याण के लिए कोई योजना बनाती, तो उसके पूरा होने के पहले ही आबादी इतनी बढ़ जाती कि, उसका प्रभाव नगण्य हो जाता। उदाहरण के तौर पर यदि किसी शहर की आबादी बीस लाख है और सरकार सभी नागरिकों को शुद्ध पेयजल आपूर्ति के लिए कोई योजना बनाती है और उसमें दस वर्ष का समय लगता है। लेकिन यदि योजना के पूर्ण होने तक आबादी तीस लाख हो जाती है, तो सारी कवायद के बावजूद पेयजल की किल्लत बनी रहेगी। यदि कोई सरकार बहुत समझदार और दूरदर्शी भी हो और उसने तीस लाख लोगों के लिए योजना बना ली, लेकिन तब भी उस योजना का असर अल्पकालिक ही होगा, क्योंकि जल्दी ही आबादी उससे भी अधिक हो जाएगी और फिर वही किल्लत का दौर शुरू हो जाएगा।

इसी समस्या के मद्देनजर मैं समय, काल और परिस्थितियों के अनुसार जनसंख्या नियंत्रण के लिए कुछ सुझाव विचारार्थ रख रहा हूँ-

यह कि, यह UNIFORM CIVIL CODE की तरह बिना किसी भेदभाव के हर भारतवासी पर लागू होगा।

• कोई भी विवाहित नागरिक जिसके 2 से अधिक बच्चे हैं, इस कानून के लागू होने के बाद तत्काल प्रभाव से उसके मताधिकार के सभी अधिकार समाप्त कर दिये जाएं और वह किसी भी निर्वाचित पद हेतु किसी भी रूप में इलेक्शन नहीं लड़ सके।

यह कि, ऐसे लोगों को सभी सरकारी सुविधाओं और नौकरियों से वंचित कर दिया जाए। केवल उनकी संतानों को शिक्षा का मूल अधिकार मिले और जीविकोपार्जन हेतु या तो वे निजी व्यावपार करें या private job।

उसकी संतानों पर भी यही प्रतिबन्ध उनके विवाह के 5 वर्षों तक लागू रहेंगे। और यदि उनके 2 से अधिक बच्चे नहीं होते, बाद में उन्हें बहाल कर दिया जाए।

यह वह प्रक्रिया होगी-
कि, हर्रे लगे न फिटकरी,
रंग चोखा। अगर आप सभी भारतवासी इन विचारों को सही समझते हैं, तो यदि इसमें कोई संशोधन करना चाहते हैं तो उसे करके शीघ्र जनांदोलन का रूप दें और यदि केंद्र सरकार की कोई वोट बैंक की तुष्टीकरण की नीति हो, तो उसे छोड़कर सरकार पर इसके लिए कानून बनाने के लिए सामूहिक दबाव बनायें।

आदर सहित,
धन्यवाद।

वंदे मातरम।
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