डॉक्टर रजनी कान्त दत्ता
पूर्व विधायक, शहर दक्षिणी,
वाराणसी ( यूपी )
कांग्रेस एक आंदोलन था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी चाहते थे कि, चूंकि उसका लक्ष्य पूरा हो चुका है, इसलिए आज़ाद भारत में अब उसकी कोई ज़रूरत नहीं है। और उसे राजनीतिक पार्टी का रूप देना स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के प्रति अक्षम्य विश्वासघात होगा। लेकिन उनके मानस पुत्र जवाहर लाल नेहरू ने लोकतंत्र के चोर दरवाज़े से अपने वंशवादी राजतंत्र को मूर्त रूप देने के लिए इस आंदोलन को राजनीतिक दल बना दिया।
समय साक्षी है कि, पंडित नेहरू के नेतृत्व में जिस बहुदलीय-संसदीय प्रजातंत्र की नींव डाली गयी, वह स्वदेशी, स्वराज और सनातनियों के सपनों का भारतवर्ष तो बना नहीं पाया, लेकिन उसने देश की एकता, अखंडता, साम्प्रदायिक सौहार्द्र और समयबद्ध सार्वभौम विकास का इतना बड़ा अहित किया, जिसका दंश हम आजतक झेल रहे हैं।
अब लीग से हटकर कुछ ऐसे साक्ष्य और लोकचर्चाएं आपके संज्ञान में लाना चाहूँगा, जिन्हें जांचने-परखने के बाद आप खुद मूल्यांकन करेंगे।
अंग्रेज़ी में एक कहावत है-
WELL BEGIN, IS HALF DONE
अर्थात- सही शुरुआत का मतलब आधी कामयाबी।
इस अंतर्मुखी (गांधी के मानस पुत्र) और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षी नेहरू के क्रियाकलापों का ही फल है कि, अगर 2014 में परिवर्तन नहीं आया होता, तो इसने और इसके वंशवाद ने हमें न जाने कहां का कहां पहुंचा दिया होता। उसकी कल्पना करने से भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
कहते हैं कि, घोड़ा भी खरीदने जाते हैं तो उसकी नस्ल देखते हैं कि, अरबी है या खच्चर है। गाय भी खरीदने जाते हैं, तो देखते हैं कि काठियावाड़ी देसी गाय है या वर्णशंकर जर्सी।
कहते हैं कि, आने वाले कल का अनुमान, बीते हुए कल के अनुभव के आधार पर लगाया जाता है और यही अनुभव वर्तमान की रूप रेखा बनाता है, जो भविष्य की रणनीति तय करता है।
कहा जाता है कि, जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला दोनों के पूर्वज दत्तात्रेय गोत्र के कौल ब्राह्मण थे।
यह मूलतः कश्मीर के रहने वाले थे और आपस में निकट संबंधी भी थे।
शेख अब्दुल्ला के पूर्वज का नाम राघवराम कौल था, जो बाद में शेख हो गये। दूसरी ओर जवाहर लाल नेहरू के दादा, जिनके पूर्वज अपना धर्म बदल चुके थे, अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फर की सल्तनत में तत्कालीन राजधानी दिल्ली के शहर कोतवाल थे।
जब 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेज़ों ने बहादुर शाह जफर को कैद कर लिया और खजाने की तलाश में मुग़ल सल्तनत के अफसरों और उनके परिवार के सदस्यों को मारना शुरू किया। तब जवाहर लाल नेहरू के दादा गयासुद्दीन बेशकीमती हीरे-जवाहरात के साथ आगरा होते हुए इलाहाबाद पहुंचे और उन्हें कोई पहचान न सके, इसलिए अतीत से नाता तोड़कर उन्होंने अपना नाम गयाप्रसाद या गंगाधर नेहरू रख लिया और allahabad के मीरगंज मोहल्ले में रहने लगे। वह तत्कालीन अभिलेखों के अनुसार, 77 नं. के मकान में रहते थे। संभवतः मीरगंज मोहल्ला उन्होंने इसीलिए चुना था कि, वह redlight एरिया था। यानी वेश्याओं का मोहल्ला, जहां लुच्चे, आवारों को छोड़कर संभ्रांत व्यक्ति नहीं जाते। और यह गयासुद्दीन का खुद को गुमनाम रखने का सबसे अच्छा प्रयास था। मोतीलाल नेहरू यहीं पैदा हुए, जवाहर लाल भी यहीं पैदा हुए। धन तो इनके पास पहले से ही था, फिर कालांतर में मोतीलाल नेहरू allahabad के एक वरिष्ठ वकील हो गये, तो आनंद भवन जैसे बहुत बड़े बंगले में स्थानांतरित हो गये।
इसी आनंद भवन में इंदिरा जी का जन्म हुआ। उसी समय allahabad के सिविल लाइंस में पारसियों की एक बहुत बड़ी ग्रॉसरी शॉप थी, जहां विलायत की बड़ी-बड़ी शराब और खाने के पदार्थ मिलते थे। जिसे वह allahbad में रहने वाले अंग्रेज़ों और एंग्लो इंडियंस के अलावा अंग्रेज़ी संस्कृति में पल रहे भारतीयों को भी सप्लाई करते थे। इसी तरह फिरोज़ गांडी, जो इस दुकान के मालिक के पुत्र थे, उनका समान आदि पहुंचाने के लिए अक्सर आनंद भवन जाते रहते थे। बाद में वह इंदिरा जी के निकट आये और दोनों में अंतर-जातीय प्रेम विवाह हो गया। यानी कि, एक तथाकथित ब्राह्मणी का पारसी युवक के साथ विवाह हुआ।
पंडित नेहरू के बाद, इंदिरा गांधी जी से लेकर राजीव गांधी का कार्यकाल कुछ विसंगतियों के अतिरिक्त भारत के अच्छे युग की शुरुआत थी।
फिर 1991 में राजीव जी की अकाल मृत्यु के बाद, कांग्रेस में जिस राजनीतिक कूड़े का ढेर इकट्ठा होने लगा, वह सड़ने लगा तो जितने भी लोग कांग्रेस को चाहते थे और प्यार करते थे, वे उसकी दुर्गंध से बचने के लिए नाक पर रुमाल रख कांग्रेस से दूर होने लगे।
अब तो हालात इस कदर बिगड़ चुके हैं कि, देशभक्त वरिष्ठ कांग्रेसियों ने गमछा बांध कर हाथ में झाड़ू-बाल्टी लेकर इस कूड़े को साफ नहीं किया, तो जनता कहीं हमेशा के लिए उसका वजूद न खत्म कर दे।
यानी कि, एक विदेशी महिला, उसका पुत्र और पुत्री कांग्रेस के अस्तित्व के लिए घातक ही नहीं हैं, बल्कि उनकी गतिविधियां देशद्रोही (antinational) हैं। उनका स्थान पार्लियामेंट या अखिल भारतीय कांग्रेस का कार्यालय नहीं, बल्कि तिहाड़ जेल है।
मेरे देशवासियों यह करो या मरो का वक़्त है। इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि, कहीं इनके द्वारा फैलाया जा रहा राजनीतिक प्रदूषण लोकतंत्र के लिए कोरोना न बन जाए।
क्रमशः
वंदे मातरम।
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳