उत्तराखंड राज्य का वो ह‍िस्सा जो आज से करीब 58 वर्ष पहले भारत-चीन की जंग की भेंट चढ़ गया था, एक बार फिर लहलहायेगा। जी हां 1962 के भारत -चीन युद्ध के समय से ही वीरान हो चुके जाड़ समुदाय से जुड़े नेलांग और जाडुंग गांवों को दोबारा बसाने की योजना में जिला प्रशासन की ओर से कोशिशें शुरू हो चुकी हैं। इससे संबंधित कमेटी हर माह दो बैठक करेगी।

खास बात यह है कि जिलाधिकारी की अध्यक्षता में नेलांग-जाडुंग से बगोरी और डुंडा में विस्थापित हो चुके ग्रामीणों से विचार-विमर्श कर कमेटी का गठन किया गया है, जो सीमा के खाली हो चुके गांव को विकसित करने का खाका तैयार करेगी।

डीएम का कहना है कि नेलांग घाटी में इनरलाइन की कुछ बाध्याताओं को समाप्त करने के लिए राज्य सरकार की ओर से केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजा गया है।

क्षेत्र का इतिहास

वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय सुरक्षा के दृष्टिकोण से नेलांग से 40 और जाडुंग गांव से 30 परिवारों को हर्षिल के समीप बगोरी और जनपद मुख्यालय से 15 किमी दूर डुंडा में विस्थापित किया गया था। उसके बाद ग्रामीण यहां कभी वापस नहीं लौटे। उस दौरान इनके घरों को सेना के बंकरों के रूप में तब्दील कर दिया गया था।

जाड़ समुदाय के लोग वर्ष में मात्र एकदिन लाल देवता की पूजा के लिए जाडुंग इनरलाइन के तहत परमिशन लेकर जाते हैं। आज भी नेलांग में ग्रामीणों की 375.61 हेक्टेयर और जाडुंग में 8.54 हेक्टेयर कृषि भूमि है।

वहीं, अब सूबे की त्रिवेंद्र सरकार के ओर से अंतरराष्ट्रीय सीमा के इन दो गांवों में होम स्टे जैसी योजनाओं के साथ पर्यटन और सामरिक दृष्टिकोण से विकसित करने की योजना की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। डीएम मयूर दीक्षित ने बताया कि मुख्यमंत्री के निर्देशानुसार अंतरराष्ट्रीय सीमा के नेलांग और जाडुंग गांव के विस्थापित और मूल निवासियों के साथ एक बैठक का आयोजन किया गया था, जिसके तहत प्रशासनिक अधिकारियों की कमेटी गठित की गई। जिसके तहत नेलांग जाडुंग में पर्यटन के विकास पर चर्चाएं और सुझाव लिए जाएंगे।

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