लक्ष्मी कान्त द्विवेदी

बिहार विधान सभा के चुनावों में कड़े मुकाबले में जीत हासिल करने के बाद नीतीश कुमार एक बार फिर सत्तारूढ़ हो गये। इसके साथ ही देश के कई अन्य राज्यों में हुए उपचुनावों में भी भाजपा ने शानदार प्रदर्शन किया। इन चुनावों पर देश-विदेश की खास नजर थी। कोरोना, लॉकडाउन के चलते ठप पड़ चुकी अर्थव्यवस्था करवटें बदल रही थी। इस दौरान केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा उठाये गये कदमों और विपक्ष के आरोपों पर जनता को फैसला सुनाना था। और लोगों ने फैसला सुनाया भी। ऐसा सुनाया, इतना परिपक्व और सारगर्भित सुनाया कि, भारतीय लोकतंत्र गौरवान्वित हो उठा।

नीतीश से नाराजगी

यह एक कटु सत्य है कि, लॉकडाउन के दौरान लोगों को राहत पहुंचाने में नीतीश सरकार का प्रदर्शन औसत से भी नीचे ही रहा। पैदल ही वतन को लौटने को मजबूर प्रवासी मजदूरों के अपारकष्टों के प्रति तो सुशासन बाबू आश्चर्यजनक तरीके से संवेदनहीन नजर आये। इन सारी चीजों से लोगों में गुस्सा था। तेजस्वी यादव ने इसे भांप लिया और नीतीश विरोधी हवा का फायदा उठाने में कामयाब रहे। लेकिन मतदाताओं की ये नाराजगी सिर्फ राज्य सरकार तक ही सीमित थी। नतीजतन जदयू की सीटें घट गयीं।

मोदी मैजिक बरकरार

दूसरी ओर केन्द्र की मोदी सरकार के कामकाज से लोग संतुष्ट दिखे। भाजपा की सीटों में करीब डेढ़ गुने का इजाफा इसका सबूत है। चुनाव के दौरान ही यह बात खुल कर सामने आ गयी थी। यही वजह है कि, पूरे चुनाव प्रचार के दौरान तेजस्वी का सारा जोर राज्य सरकार की नाकामियों पर रहा। वह मोदी को चुनौती देने से परहेज करते रहे। कार्यकर्ताओं से भी कह दिया, मोदी को ‘अल-बल’ न कहें। खुद नीतीश बाबू को भी हवा का रुख भांपने में देर नहीं लगी और उन्होंने भी मोदी के नाम और काम पर ही वोट मांगा।

शिवसेना की पीड़ा

चुनाव में भाजपा को जदयू की तुलना में कहीं ज्यादा सीटें मिलने के बावजूद नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाने की बात आने पर शिवसेना नेता संजय राउत ने ईर्ष्यावश टिप्पणी की कि, यदि भाजपा ज्यादा सीटें मिलने पर भी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाती है, तो उन्हें शिवसेना का शुक्रगुजार होना चाहिए, जिसने महाराष्ट्र में दिखा दिया कि सहयोगियों से किये गये वायदे पूरा न करने का अंजाम क्या होता है? लेकिन उन्हें स्मरण हो न हो, मतदाताओं को जरूर याद है कि, बिहार में राजग नीतीश कुमार की अगुवाई में चुनाव लड़ी थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा समेत सभी बडे़ नेताओं ने हर चुनाव सभा में नीतीश कुमार को ही भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया था। दूसरी ओर महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार के दौरान हर बार खुले मंच पर भाजपा नेताओं ने शिवसेना नेताओं के सामने देवेंद्र फडणवीस को भावी मुख्यमंत्री घोषित किया था। अब शिवसेना के कान में किसने, कब, क्या कहा था और जब फडनवीस का नाम लिया गया, तब ऐतराज क्यों नहीं जताया? इन सवालों का जवाब तो वही जाने। वैसे इस पूरे प्रकरण में जदयू और भाजपा ने परिपक्व और गरिमापूर्ण आचरण का प्रदर्शन किया। राजग की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते भाजपा को मुख्यमंत्री पद सौंपने की नीतीश कुमार की पेशकश और भाजपा का गठबंधन की घोषणा के मुताबिक उससे इनकार कर नीतीश की ताजपोशी करना एक मिसाल बन गया। इसे राउत जी को जवाब भी मान सकते हैं।

तेजस्वी-वामदल मजबूत, कांग्रेस ने लुटिया डुबोई

चुनावी राजनीति में दोनों गठबंधनों को लगभग समान चुनौतियों का सामना करना पड़ा। चिराग पासवान ने राजग को चोट पहुंचाई, तो ओवैसी ने तेजस्वी को झटका दिया। कांग्रेस ने तो आईने से तौबा कर रखी है। लिहाजा उसका प्रदर्शन देखने के बाद गठबंधन को उसे दी गयीं 70 सीटें ज्यादा लगने लगीं। वैसे चुनाव नतीजों पर विपक्ष की प्रतिक्रिया निराशाजनक रही। छोटे नेताओं ने ईवीएम पर ठीकरा फोड़ा, तो बड़ों ने सीधे चुनाव आयोग पर ही पक्षपात का आरोप लगा दिया। तेजस्वी नीतीश विरोधी हवा का फायदा उठाने में सफल रहे और उनका राजद सबसे बड़ा दल बना। वाम दलों ने भी अच्छी कामयाबी हासिल की, लेकिन कांग्रेस की नाकामी ने बहुमत तक नहीं पहुंचने दिया। हाथ आ रही सत्ता के यूं जाने से व्याकुल तेजस्वी ने चुनाव के ठीक पहले गठबंधन छोड़ राजग का हाथ थामने वाले जीतनराम मांझी और मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री पद का लालच दे अपने पाले में लेकर एआईएमआईएम के सहयोग से कुर्सी हथियाने की योजना बनायी। इस पर एआईएमआईएम ने तो सकारात्मक रुख दिखाया, लेकिन हम और वीआईपी की दो टूक ने सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया। आहत तेजस्वी शपथग्रहण समारोह में भी नहीं गये।

अन्य राज्यों के लिए भी सबक

कुल मिला कर बिहार के मतदाताओं ने जहां मोदी पर भरोसा कर राजग को फिर गद्दी सौंप दी। वहीं जदयू की सीटें घटा कर साफ कर दिया कि, उसे अपनी उपेक्षा पसन्द नहीं। अन्य भाजपा शासित राज्यों को भी यह जनादेश अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि, सूबे की हुकूमत हासिल करने के लिए खुद भी मेहनत करनी होगी, केन्द्र जैसी ईमानदारी दिखानी होगी, राज्य स्तरीय नेतृत्व विकसित करना होगा। सिर्फ मोदी के नाम और काम के भरोसे बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। वैसे यह अच्छी बात रही कि, भाजपा नेतृत्व ने समय रहते इस पर ध्यान दिया और नयी सरकार के अपने कोटे में भारी फेरबदल करते हुए सुशासन का संकल्प जताया है।

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