हार गयी साँझी संस्कृति, जीत गयी संकीर्णता

आखिर दुखी मन से लौट गये जयपुर डा.फिरोज खान ?

पदम पति शर्मा
प्रधान संपादक

वाराणसी के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में एक मुसलमान शिक्षक की बतौर असिस्टेन्ट प्रोफेसर पद पर नियुक्ति को लेकर इतना ओछा विवाद खडा कर दिया गया कि जिसके घर मे राम सीता विराजते हो, जिनको वो बचपन से देखता चला आया हो और जिसने इन्टरव्यू मे शत प्रतिशत अंक प्राप्त कर नियुक्ति पत्र पाया हो वो आखिर हार कर कभी लौट कर न आने की बात करता हुआ जयपुर लौट गया ?

जी हाँ, हम बात कर रहे हैं प्रकांड स्स्कृत विद्वान प्रोफेसर डाक्टर फिरोज खान की कि जिन्होंने राजनीति प्रेरित विरोध के आगे अंततः घुटने टेक दिये । यह एक हादसा है खास कर उन संवेदनशील लोगों के लिए जो गंगा- जमुनी तहजीब के पहरुआ हैं। दुर्भाग्य वश इतना घटिया यह कांड उस गंगा प्रेमी कवि नजीर बनारसी की धरती पर हूआ है जिस शहर के सांसद वो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं जो “सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास” मूल मंत्र के शिल्पी हैं । कहाँ गुम हो गये उनके स्थानीय प्रतिनिधि और कैसे इस मसले पर चुप्पी साध गये स्थानीय भाजपायी जबकि उनके सामने इतना बडा अनर्थ हो रहा है ?

बीएचयू के वीसी लाज के सामने छात्रों का एक गुट कई दिनों से धरना दे रहा था। ये छात्र कभी मिर्ची यज्ञ कर रहे थे तो कभी बुद्धि-शुद्धि यज्ञ। ये कुलपति से खफा थे और उन शिक्षाविदों से भी जिन्होंने विश्वविद्यालय में डा. फिरोज खान की काबिलियत को पहचाना और इंटरव्यू में उन्हें दस में से दस अंक दिए।

आंदोलन के औचित्य को जायज ठहराने वाले छात्र बीएचयू के संस्थापक मदन मोहन मालवीय की भावना का हवाला दे रहे हैं । उनके मुताबिक मालवीय जी इस विभाग में गैर हिंदू का प्रवेश नहीं चाहते थे।

यह बात एक पत्थर पर खोदी गई है, जिसमें कहा गया है यहां कोई मुसलमान न पढ़ सकता है और न ही पढ़ा सकता। वो कौन सा पत्थर है और कहां है? बीएचयू प्रशासन कभी उसे नहीं ढूंढ पाया जिस पत्थर पर वो इबारत लिखी थी। माहौल ऐसा बना दिया गया कि कहीं पत्थर हो या न हो, आंदोलनकारी छात्र जो बात कह रहे हैं वही पत्थर की लकीर है।

डाक्टर खान की नियुक्ति का विरोध करने वालों का एक पक्ष यह भी था कि वे धर्म विज्ञान पढ़ते हैं। चुटिया रखते हैं और गुरु के चरण स्पर्श भी करते हैं। मतलब वे एक खास तरह के हिन्दू हैं। किसी गैर हिंदू का स्पर्श भी उनके धर्म को दूषित कर देता है। इसलिए वो किसी मुसलमान अध्यापक से संस्कृत नहीं पढ़ेंगे।

दूसरी ओर, डा.खान के पक्ष में तर्क यह दिया जा रहा था कि संस्थान में डॉ. खान की नियुक्ति संस्कृत भाषा और साहित्य पढ़ाने के लिए की गई है, धर्म की शिक्षा देने के लिए नहीं। अगर मालवीयजी इस दौर में होते तो मुस्लिम शिक्षक की नियुक्ति का कभी विरोध नहीं करते । वो पंडित थे, पोंगा पंडित नहीं ।

बीएचयू के कुलपति राकेश भटनागर और संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के प्रमुख उमाकांत चतुर्वेदी कह रहे हैं कि डा. फिरोज खान का चयन उनकी काबिलियत के आधार पर किया गया है। हालत ऐसी बन गयी कि कुलपति बवाली छात्रों के आगे बौने साबित हो गये। एक्शन लेने और उनके खिलाफ पुलिस मे रिपोर्ट दर्ज करने की बजाए उनसे सुलह-समझौता करने की कोशिश की जा रही है ?

डा.खान के पक्ष में बोलने से ज्यादा इस संकीर्ण हुड़दंग के खिलाफ बोलना जरूरी है, लेकिन कुलपति ही नहीं, बीएचयू के शिक्षक समुदाय ने भी खामोशी की चादर ओढ़ रखी है। क्यों? वाकई यह एक यक्ष प्रश्न है।

डा. फिरोज खान जयपुर के रहने वाले हैं और इनके पिता संस्कृत में शास्त्री ( स्नातक ) रमजान एक गोशाला की देखरेख के लिए भजन गाकर चंदा जमा करते हैं। हिन्दू धर्म में भी उनकी गहरी आस्था है इसका सहज ही अहसास इससे हो जाता है कि एक ओर वो नमाज पढ़ते हैं तो दृसरी ओर जयपुर से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अपने बागरू गांव के आसपास मंदिर की आरती में शरीक ही नहीं होते बल्कि हारमोनियम बजाते हुए भजन भी गाते हैं ।

मगर बीएचयू के बवाली छात्रों को इस बात से कोई मतलब नहीं हैं। इन्हें लगता है कि डा.फिरोज चाहे जो भी हों, वो हैं तो मुसलमान। संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में उनका कोई काम नहीं है। कहा जा रहा था कि वो पाकिस्तान जाएं और वहीं संस्कृत पढ़ाएं। पढ़ाई-लिखाई तो बाद की बात है, पहले बीएचयू की पवित्रता को बचाना जरूरी है। शायद इन्हें लगता था कि डा.खान के संस्कृत पढ़ाने से यूनिवर्सिटी अपवित्र हो जाएगी…। संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय कलंकित हो जाएगा…।

राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान से पढ़ाई करने वाले डा.खान ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि बीएचयू में उनकी तैनाती पर इतना बड़ा बवाल होगा? छात्र ही उनके खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक देंगे ? दरअसल वो उस साझा संस्कृति के नुमाइंदे हैं, जिन पर हाल के सालों में लगातार हमले हो रहे हैं। हमने उन बातों को सिरे से खारिज कर दिया है कि वैश्विक स्तर पर संस्कृत को जिन लोगों के कारण सम्मान मिला, वे सिर्फ़ हिन्दू और ब्राह्मण नहीं, अंग्रेज, मुस्लिम और जर्मन विद्वान भी थे। अनुवाद के जरिए उन्होंने संस्कृत को समूची दुनिया में अलग पहचान दिलाई। साल 1953-54 में मुहम्मद मुस्तफा खान मद्दाह ने उर्दू-हिंदी के एक ऐसे शब्दकोश का संपादन किया, जिससे बेहतर कोई शब्दकोश आज तक बना ही नहीं। मुस्तफा संस्कृत के अलावा अरबी, फारसी, तुर्की, पाली और हिंदी के विद्वान थे। उन्होंने अपना शब्दकोश डॉ. सम्पूणार्नंद को समर्पित किया था जो राजनेता होने के अलावा संस्कृत के भी विद्वान थे और जिनके नाम पर बनारस में संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय है।

बनारस के लमही के मुंसी प्रेमचंद उर्दू के विद्वान थे। उन्होंने अपनी चर्चित कहानी कफन उर्दू में ही लिखी थी। हिन्दू घरों में जन्मे तमाम शायरों ने मीर और गालिब की परंपरा का दामन आज तक नहीं छोड़ा है। हैरत की बात यह है कि बनारस के बीएचयू में भाषा अब राजनीति का हथियार बनती जा रही है। संस्कृत भाषा पहले ही एक जाति विशेष की क्रूर संकीर्णता का शिकार होकर लोगों की पहुंच से बाहर हो गई है। संस्कृत को क्रूर और खोखला बनाने की साजिश रचने वाले अब पुराने, संकीर्ण और सामंती राग अलाप रहे हैं।
यह बात हर कोई जानता है कि सालों पहले दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले अमरत्व प्राप्त बहुचर्चित सीरियल महाभारत की पटकथा गाजीपुर की माटी से जुड़े उपन्यासकार, साहित्यकार राही मासूम रजा ने लिखी थी। उस समय न तो किसी ने महाभारत देखने से रोका और न ही कोई बितंडावाद खड़ा किया।
यही नहीं कृष्ण भक्त रसखान की कान्हा के लिए लिखी प्रेमसिक्त कविताओं को इन कूपमंडूक तथाकथित छात्रों ने शायद ही पढा होगा। अन्यथा वे इस तरह की कट्टरता नहीं दिखाते। धर्माचार्य महामंडलेश्वर जितेन्द्रानंद सरस्वती को भी डा फिरोज केे धर्म

पढाने को लेकर आपत्ति है, यह जान कर दुख हुआ। आचार्य जी की विद्वता का कायल रहा हूँ । उनके मुख से यह बात शोभा नहीं दी। देश का सर्वश्रेष्ठ फिल्मी भजन ” मन तड़पत हरि दर्शन को आज” मे सिर्फ मुसलमानों का ही अंशदान रहा है। इस भजन को लिखा था शकील बदायूनी ने तो संगीत बद्ध किया था नौशाद साहब ने और गाया था मोहम्मद रफी ने। इस पर भी प्रतिबंध लगा देना चाहिए था ?

अंत में दुख और क्षोभ के साथ कहना पड रहा है कि संकीर्ण धार्मिक सोच का जहर घोलने के लिए रेस लगाने वाले जीत गये और साँझी संस्कृति हार गयी।

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