विशेष संवाददाता

अफगानिस्तान में आजादी फिर खतरे की गिरफ्त में है। अमेरिकी फौज सालों निगेहबानी करने के बाद थक-हार कर लौटने क्या लगी, फिदाइन हमले वाले फिर सक्रिय हो गये। तीन दिन पहले राजधानी काबुल के मैटरनिटी हास्पिटल पर हमला यह साबित कर गया। सबसे द्रवित करने वाला नजारा था, नवजात शिशुओं का लाशों के ढेर से बरामद होना। दर्जनो शिशुओं के मारे जाने की बात जंगल की आग की तरह फैल गयी। जरा सोचिए उनके बारे मे जिनकी तो कायदे से अभी आख तक नहीं खुली थी। वे कोख से बाहर आए ही थे कि आतंकी हमले में हलाक हो गये। ऐसी जिंदगी का शिकवा अल्लाह से न हो तो किससे हो।

अफगानिस्तान अपने सुनहरे दिन को याद करके रो तो रहा है। लेकिन शियाओं पर हो रहे हमले मानवता को रुला रहे हैं। क्या वे मुस्लिम नहीं। इस्लाम के झंडाबरदारों को ये नहीं दिखता ? 21 रमजान को ही हजरत अली शहीद हुए थे। 19 रमजान की सुबह नमाज अता करते समय जालिम अब्दुर रहमान ने उनकी गर्दन पर जहर बुझी तलवार से हमला किया था। इस रमजान मे उसी जालिम के वंशजों ने बच्चों पर हमला किया। कौन कहता है रमजान को मुकद्दस महीना ?

इस हमले का अफसोसनाक पहलू था कि प्रसूता मौत की नींद सुला दी गईं। कई मां तो अपने बच्चों को पहलू में रखे जां बहक हो चुकी थीं। ये नजारे या वर्णन एक दिन का नहीं, अंतहीन है। पाकिस्तान में शियाओं की हत्या आम बात थी, लेकिन हाल के दिनों में अफगानिस्तान में ये शुरू कर दिया गया है। मासूमों की हत्या से सभी मर्माहत हैं। यजीद आज भी कई रूप में जिंदा है। वह मरा नहीं, उसे शायद इस्लाम से खारिज नहीं किया जा सका। तभी तो उस जैसी शैतानी हरकत आज भी की जा रही है। वक्त आ गया है कि इस क्रूर प्रवृत्त्ति पर अंकुश लगाया जाय। अमेरिका अपनी फौज लौटाने का मजबूरी का रोना रोकर ही इन आतंकियों का मन बढ़ा रहा है। समय है कि अमेरिका अपने फैसले पर फिर विचार करे और अफगानिस्तान में शियाओं को टारगेट करने पर रोक लगाए। वरना इंसानियत की कहानी जब नए सिरे से लिखी जाएगी तो इसमें कई पक्षों की मौत होगी।

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