प्रशांत बाजपेयी

किस तरह की और किस कदर नफरत है ये, कि उन 27 निर्दोषों को सिर्फ इसलिए गोलियों से भून दिया गया कि वे मुसलमान नहीं थे। . कितने बीमार हैं इनके हिंसक दिमाग, जो हर “गैर दीनी” चीज़ और प्रत्येक “गैर इस्लामी” शख्स को मिटा देना चाहते हैं. जो गैर मुस्लिमों के दिलों में अपनी दहशत बिठाने की कसमें खाते हैं। और कितने बीमार हैं वो दिमाग, जो इन मारे गए निर्दोष सिखों को, उनके अपने भारत में आसरा दिए जाने की खिलाफत कर रहे हैं। कमअक्ल भीड़ को भड़काकर शाहीनबाग़ सुलगा रहे थे। . इस रोती हुई बच्ची और बच्चे को देखकर भी जिनका दिल नहीं पिघलता. जो झूठ बोलने में ज़रा सा नहीं हिचकते। नाम संविधान का, काम पाकिस्तान का। “सीएए वापस लो” का नारा लगवाने वाले देश में पाकिस्तान का हाथ बनकर काम कर रहे है।. ठीक वैसे ही जैसे काबुल के गुरु हरराय गुरुद्वारे में घुसे वो चार कायर जिहादी जिनमें एक भारतीय भी था, पाकिस्तान का हुक्म बजा रहे थे और इसी लपेट में अपना “दीनी फ़र्ज़” निभाकर जन्नत में “72 हूरों” के साथ ऐश करने की सेटिंग कर रहे थे।

“इस्लामिक स्टेट” नहीं, “इस्लामिक स्टेट ऑफ़ पाकिस्तान”
नाम इस्लामिक स्टेट का आ रहा है, लेकिन ये काम इस्लामिक स्टेट का नहीं बल्कि पाकिस्तान की आईएसआई का है। अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट के नाम पर पाक फौज के पाले हुए जिहादी ही काम कर रहे हैं। अफगानिस्तान में काम कर रहे सभी जिहादी आतंकी संगठन पाकिस्तान के मोहरे हैं । चाहे वो दर्जनों तालिबान समूह हों, खूंखार हक्कानी नेटवर्क हो या इस्लामिक स्टेट ऑफ़ अफगानिस्तान। वास्तव में यहां इस्लामिक स्टेट का अस्तित्व है ही नहीं। तालिबान को पाकिस्तान अफगानिस्तान की सत्ता पर फिर से बिठाना चाहता है। हक्कानी नेटवर्क की छवि को वो लगातार “अमेरिकी दमन” के खिलाफ लड़ने वाले लड़ाकों के रूप में पेश करता आया है, इसलिए जब ये लोग किसी मंदिर-गुरुद्वारे में घुसकर खून की नदी बहाते हैं, किसी स्कूल को बारूद से उड़ाते हैं, किसी बाजार को बम से उड़ाते हैं तो अब नाम “इस्लामिक स्टेट” का उछालते हैं. काम इमरान खान के रावलपिंडी वाले आकाओं का ही होता है। 25 मार्च को काबुल गुरुद्वारे पर किया गया हमला भी आईएसआई के कहने पर हक्कानी नेटवर्क ने लश्कर ए तय्यबा के कुछ जिहादियों के साथ मिलकर किया। इस साजिश का सूत्रधार था, तालिबान का एक डिप्टी कमांडर सिराजुद्दीन हक्कानी। सारी योजना को नाम दिया गया था “ऑपरेशन ब्लैक स्टार”।

वापस लौट रहा है तालिबान

अब चूंकि अमेरिका अफगानिस्तान में चल रही अंतहीन लड़ाई से थक चुका है, ट्रम्प ने अफगानिस्तान से अपनी सेना की वापसी की कोशिशें तेज कर दी हैं। पाकिस्तान, तालिबान, हक्कानी गिरोह, लश्कर ए तय्यबा और दूसरे जिहादी बरसों से इस वापसी की राह देख रहे हैं। आज भी अफगानिस्तान के एक बड़े हिस्से को तालिबान अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित कर रहा है। पाकिस्तान की फौज तालिबान के पीछे खड़ी है। इसलिए अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान को वार्ता की मेज पर आने की मान्यता दे दी है। इस मान्यता का अर्थ तालिबान को भविष्य में सत्ता की डोर के कुछ सूत्र संभालने देने से भी है। इस घटनाक्रम से अफगानिस्तान के गैर मुस्लिम घबराए हुए हैं। उधर तालिबान बातचीत की बात करते हुए काबुल और दूसरे अफगान शहरों में बारूद भी बरसा रहा है।

अफगानिस्तान के हिंदू-सिखों का दर्द

1970 में अफगानिस्तान में लगभग 7 लाख हिंदू-सिख रहा करते थे. अब वो मात्र 7 हजार बचे हैं.। आखिर कहां गए ये लोग? पाकिस्तान और बबाग्लादेश के अल्पसंख्यकों पर जिस प्रकार का अत्याचार हो रहा है, उसके बारे में अब मीडिया में थोड़ा-बहुत आने लगा है लेकिन अफगानिस्तान के बारे में लोगों की जानकारी तालिबान द्वारा बामियान बुद्ध के विध्वंस तक सीमित है। वास्तव में इस “इस्लामी हुकूमत” का वास्तविक अर्थ अल्पसंख्यकों के लिए बेहद डरावना है। आज से 30 साल पहले जब अफगानिस्तान में तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता हथियाई थी, तब गैर-मुस्लिम नागरिकों के लिए इस्लामी आचार संहिता लागू की गई थी। ठीक वैसी ही, जैसी कई मुल्लाओं द्वारा बतलाई जाती है। जैसी व्यवस्था सदियों तक इस्लामी देशों में लागू रही है. ये व्यवस्था क्या थी, इसे दिसंबर 1999 में तालिबान सरकार द्वारा इस्लामिक शरिया की धारा 10 के अंतर्गत जारी आदेश से समझा जा सकता है। इस आदेश की एक प्रति काबुल के कारतेपरवान गुरुद्वारे को भेजी गई थी। ये प्रति उस समय भारत के मीडिया में भी प्रकाशित हुई थी।

इस ‘इस्लामी’ आदेश में अफगानिस्तान के हिंदुओं-सिखों और ईसाईयों से कहा गया था, कि वो कोई नया पूजा स्थल नहीं बना सकेंगे. उनके मौजूदा पूजास्थल में कोई नया निर्माण नहीं हो सकेगा और न ही वो अपनी भूमि बढ़ा सकेंगे. गैर मुस्लिमों को सदा पीले रंग के कपडे पहनने होंगे और उनके वस्त्रों पर उनकी गैर-मुस्लिम पहचान को बतलाने वाला चिन्ह साफ़ दिखना चाहिए. पुजारियों , रागियों को काले रंग की पगड़ी पहननी अनिवार्य होगी। गैर मुस्लिम महिलाओं को पीले रंग का बुर्का पहनना होगा ताकि उन्हें अलग से पहचाना जा सके. वो केवल लोहे के आभूषण पहन सकेंगी। गैर मुस्लिमों को कोई भी हथियार रखने की मनाही होगी और उनके घरों पर दो मीटर लंबा पीला झंडा होना चाहिए ताकि उन्हें दूर से पहचाना जा सके। गैर मुस्लिम किसी मुस्लिम के साथ एक घर में ( किराए से या अन्य प्रकार से ) नहीं रह सकेंगे। गैर मुस्लिम किसी मुसलमान के खिलाफ अदालत में शिकायत नहीं कर सकेंगे । इन नियमों के ज़रा से भी उल्लंघन पर मौत की सजा तक दी जा सकती थी।

सीएए विरोधी या देश विरोधी धरना

तालिबान के पहले मुजाहिदीनों ने इन लोगों को बहुत सताया था। मामूली बात पर हत्या, मंदिर तोड़ देना, जमीन छीन लेना, घर हथिया लेना, खुलकर पूजा करते पाए जाने पर या घर के बाहर शंख, घंटी, आरती या शबद सुनाई दे जाने पर मारपीट, आगजनी, हत्या कर देना, अपहरण और मोटी फिरौती की वसूली आम बात थी। 2001 में तालिबान अफगानिस्तान से खदेड़ दिए गए. लडखडाता हुआ लचर लोकतंत्र अफगानिस्तान में आया। कट्टरपंथी मुजाहिदीन अब नेताओं के संरक्षण में हावी होने लगे। हामिद करजई की सत्ता (2001 से 2014) के बाद के वर्षों में मुजाहिद फिर से सड़कों पर दनदनाने लगे। अत्याचारों का नया दौर शुरू हो गया। 2014 के बाद, अफगान सरकार पर बढ़ते भारत के प्रभाव का लाभ इन लोगों को मिला। समस्याओं की बेहतर सुनवाई होने लगी। इससे बौखलाए पाकिस्तान ने अफगानी हिंदुओं और सिखों पर खूनी हमले तेज कर दिए। इसी कड़ी का ताजा हमला काबुल के इस गुरुद्वारे पर हुआ है जिसमें 27 निर्दोष सिखों को छलनी कर दिया गया।

इनका सहारा सीएए

इन बेसहारा लोगों का सहारा बना भारत सरकार द्वारा लाया गया सीएए क़ानून, जिसके खिलाफ भारत के छद्म सेकुलर दलों की शह पर शाहीनबाग़ का तमाशा सजाया गया। देश भर में छोटे-छोटे सैकड़ों शाहीनबाग़ कुकुरमुत्ते की तरह उग आए। जगह-जगह तोड़फोड़, हिंसा और आगजनी की गई। ट्रेनों पर हमले किए गए. बसें जलाई गईं. अंततः इसकी चरम परिणिति दिल्ली के दंगे के रूप में हुई। जिसके अगले सिलसिले में सारी दुनिया में इस जिहादी उत्पात को “हिंदू दंगा” बताकर देश को बदनाम किया गया. मज़हब के नाम पर बौराए एक समूह को हथियार बनाकर 70 साल बाद किए गए न्याय को उलटने और देश की शांति को भंग करने की कोशिश की गई।

सिख कौम का दुश्मन डी एस बिन्द्रा

काबुल के हमले के बाद रोते हुए इस मासूम बच्ची की तस्वीर हमें झकझोर रही है। सीएए विरोधी और उन विरोधियों के समर्थक, गुनाहगार हैं इस बच्चे के. गुनाहगार हैं उन महिलाओं के जो विधवा हो गईं हैं, उन माँ-बाप के, जो बिलख रहे हैं। ये बच्चे उन लोंगो से भी सवाल पूछ रहे हैं जो कट्टरपंथी जिहादियों की शह पर शाहीनबाग़ वालों के लिए “लंगर” चला रहे थे।
( पांच जन्य से संपादित अंश)

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