विशेष संवाददाता

कतर के दोहा में शनिवार को अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता होने से भारत की चिंताएं बढ़ गयी हैं। अफगानिस्तान में तालिबान का प्रभाव बढ़ने से न केवल वहां भारत की मदद से चल रही विकास परियोजनाएं प्रभावित हो सकती हैं, बल्कि उस पर सीमा-पार से होने वाली घुसपैठ और आतंकी हमलों का खतरा बढ़ने का अंदेशा भी है।

गौरतलब है कि, इस करार के दौरान भारत समेत दुनियाभर के 30 देशों के प्रतिनिधि मौजूद रहे। वैसे एक अरसे से आशंका जताई जा रही थी कि, भू राजनीतिक रूप से अहम अफगानिस्तान में तालिबान के कदम पसारने से वहां की नवनिर्वाचित सरकार को खतरा होगा और भारत की कई विकास परियोजनाएं प्रभावित होंगी। इसके अलावा भी पश्चिम एशिया में पांव पसारने की तैयारी में लगी मोदी सरकार को बड़ा नुकसान होगा।

समझौते के अहम बिंदु

समझौते के अनुसार अमेरिका अफगानिस्तान में मौजूद अपने सैनिकों की संख्या में धीरे-धीरे कमी लाएगा। इसके तहत पहले 135 दिनों में करीब 8,600 सैनिकों को वापस अमेरिका भेजा जाएगा।

अमेरिका अपनी ओर से अफगानिस्तान के सैन्य बलों को सैन्य साजो-सामान देने के साथ प्रशिक्षित भी करेगा, ताकि वह भविष्य आंतरिक और बाहरी हमलों से खुद के बचाव में पूरी तरह से सक्षम हो सकें।

तालिबान ने इस समझौते के तहत बदले में अमेरिका को भरोसा दिलाया है कि, वह अल-कायदा और दूसरे विदेशी आतंकवादी समूहों से अपना नाता तोड़ लेगा। साथ ही अफगानिस्तान की धरती को आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं होने देने में अमेरिका की मदद भी करेगा।

खटाई में पड़ सकती हैं भारत की ये परियोजनाएं

भारत पहले से ही अफगानिस्तान में अरबों डॉलर की लागत से कई बड़ी परियोजनाएं पूरी कर चुका है और इनमें से कुछ पर अभी काम चल रहा है। भारत ने अब तक अफगानिस्तान को करीब तीन अरब डॉलर की मदद दी है, जिससे वहां संसद भवन, सड़कों और बांध आदि का निर्माण हुआ है। यही भारत की अफगानिस्तान में लोकप्रियता बढ़ने की वजह भी है। हालांकि भारत अभी भी वहां कई मानवीय और विकासशील परियोजनाओं पर काम कर रहा है।
 
भारत 116 सामुदायिक विकास परियोजनाओं पर काम कर रहा है, जिन्हें अफगानिस्तान के 31 प्रांतों में क्रियान्वित किया जाएगा। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, पेयजल, नवीकरणीय ऊर्जा, खेल अवसंरचना और प्रशासनिक अवसंरचना के क्षेत्र शामिल हैं। भारत काबुल के लिए शहतूत बांध और पेयजल परियोजना पर भी काम कर रहा है।

अफगान शरणार्थियों के पुनर्वास को प्रोत्साहित करने के लिए भी नानगरहर प्रांत में कम लागत से घरों के निर्माण का काम भी प्रस्तावित है। बामियान प्रांत में बंद-ए-अमीर तक सड़क संपर्क, परवान प्रांत में चारिकार शहर के लिए जलापूर्ति तंत्र और मजार-ए-शरीफ में पॉलीटेक्नीक के निर्माण में भी भारत सहयोग दे रहा है। वहीं कंधार में अफगान राष्ट्रीय कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की स्थापना में भारत सहयोगी है। अब यदि अफगानिस्तान में तालिबान का प्रभुत्व बढ़ता है, तो ये सभी परियोजनाएं खटाई में पड़ सकती हैं।

चाबहार परियोजना को भी खतरा

इसके अलावा ईरान के चाबहार बंदरगाह के विकास में भारत ने भारी निवेश किया हुआ है, ताकि अफगानिस्तान, मध्य एशिया, रूस और यूरोप के देशों से व्यापार और संबंधों को मजबूती दी जा सके। इस परियोजना को चीन की वन बेल्ट वन रोड परियोजना की काट माना जा रहा है। ऐसे में यदि तालिबान सत्तासीन होता है तो भारत की यह परियोजना भी खतरे में पड़ सकती है, क्योंकि इससे अफगानिस्तान के रास्ते अन्य देशों में भारत की पहुंच बाधित होगी।

घुसपैठ बढ़ने की आशंका

अफगानिस्तान से विदेशी सेनाओं की वापसी के बाद तालिबान का अफगानिस्तान में फिर से वर्चस्व स्थापित हो सकता है, जो भारत की सुरक्षा चिंताओं को बढ़ा सकता है। यह क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए भी चुनौतियां खड़ी कर सकता है। पाकिस्तान से तालिबान की नजदीकियों को देखते हुए तालिबानी आतंकी पाकिस्तान के रास्ते भारत में घुसपैठ की कोशिश कर सकते हैं। कई सुरक्षा एजेंसियां इसकी आशंका पहले ही जता चुकी हैं।

तालिबान का खुला विरोधी है भारत

भारत शुरुआत से ही तालिबान का खुले तौर पर विरोध करता रहा है। जब तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा किया था, तो भारत ने उसे मान्यता नहीं दी थी। भारत तालिबान के साथ हुई शांति वार्ता में भी कभी शामिल नहीं हुआ।

अफगान सरकार को भी खतरा

अमेरिका और तालिबान के बीच शांति वार्ता का सफल होना अफगानिस्तान की मौजूदा सरकार के लिए भी बड़ा खतरा है। अमेरिका अपने सैनिकों को वापस बुला लेगा, जिससे तालिबान को फिर से अपनी जड़ें मजबूत करने से रोकने के लिए कोई बड़ी ताकत मौजूद नहीं होगी। सिर्फ यही नहीं, अमेरिकी फौजों के वापस जाते ही तालिबान अफगान सरकार के खिलाफ युद्ध का ऐलान भी कर सकता है, इससे इस देश में गृहयुद्ध का खतरा पैदा हो सकता है। हालांकि समझौता के तहत धीरे-धीरे अमेरिकी सेना हटाये जाने की बात कही है। ऐसे में देखना होगा कि क्षेत्र में क्या हालात बनते हैं। वैसे तालिबान को पाकिस्तान से परोक्ष रूप से मिलने वाला सैन्य समर्थन अफगान सरकार के लिए चिंता का विषय रहा है।

वार्ता के खिलाफ रही अफगान सरकार

बता दें कि अफगानिस्तान सरकार, अमेरिका-तालिबान के बीच हो रही शांति वार्ता के खिलाफ थी। राष्ट्रपति अशरफ गनी ने एक बयान में कहा भी था कि बेगुनाह लोगों की हत्या करने वाले समूह से शांति समझौता निरर्थक है। क्योंकि तालिबान अफगान सरकार को नहीं मानता। 

पाकिस्तान के लिए फायदे का सौदा

दूसरी ओर तालिबान के साथ अमेरिका की शांति वार्ता और समझौता पाकिस्तान के लिए फायदे का सौदा है। इसलिए इन दोनों ध्रुवों के बीच पाकिस्तानी सरकार और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई बिचौलिए का काम कर रही थी। अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों के वापस जाते ही पाकिस्तान तालिबान की मदद से कश्मीर में आतंकी घटनाओं को अंजाम दे सकता है। यह भी भारत की मुश्किल बढ़ाने वाली बात ही है।

तालिबान को अमेरिका के साथ बातचीत की मेज पर पाकिस्तान ही लेकर आया था, क्योंकि वह अपने पड़ोस से अमेरिकी फौजों की जल्द वापसी चाहता है। कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका-तालिबान की वार्ता में शामिल होने के लिए ही पाकिस्तान ने कुछ महीने पहले तालिबान के उप संस्थापक मुल्ला बारादर को जेल से रिहा किया था। अगर अफगानिस्तान में तालिबान की जड़ें मजबूत होती हैं तो वहां की सरकार को हटाने के लिए पाकिस्तान तालिबान को सैन्य साजो-सामान मुहैया करा सकता है। क्योंकि, अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार के साथ पाकिस्तान के संबंध सही नहीं है।

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