रतन सिंह

‘सबको होता है अपनी मौसिकी पर नाज़, लेकिन मेरे दोस्त मौसिकी को आज तुम पर नाज़ है।’

ये लाइनें कभी जिस नौशाद ने मोहम्मद रफी के लिए कहीं थीं, लेकिन वो उनके लिए कहने की गुस्ताखी कर रहा हूँ। आज पांच मई का वह दिन है, जब भारतीय फिल्म संगीत के ‘प्रेमचंद’ नौशाद साहब को 14 साल पहले भारत ने खो दिया था। संगीत को गर्व क्यों होना चाहिए नौशाद पर, इसके बहुतेरे कारण हैं। भारतीय फिल्म संगीत अगर आज जिस रूप में दिख रहा है, उसकी बुनियाद के सबसे बड़े पिलर नौशाद हैं।

संगीत की जो हालात है, वो इसी पीढ़ी पर छोड़ कर आगे बढ़ें, जैसे हम पूर्व में करते आये हैं। संगीत कैसा सुनें, क्या सुनें,इस पर काफी समय लग जायेगा। नौशाद कहते थे कि नया था तब भी और काम मिलना बंद हो गया तब भी, मेरी इस सोच में फर्क नहीं पड़ा कि हमारा भारतीय संगीत ही अमर है, असल है। इसके रूप जिन्होंने बिगाड़े, वो जाने। संगीत की नक़ल पर कहते थे कि दूसरों के दर पर क्यों हाथ पसारें, जब हमारे खुद के खजाने बहुत हैं।

1940 के दशक के संगीतकार खेमचंद प्रकाश ( महल) ने नौशाद की पैर जमाने में मदद की। और फिर 1944 में ‘रतन’ की सफलता ने नौशाद को स्टार बना दिया। रफी साहब को कोरस में गवाया और फिर -सुहानी रात ढल गयी, आई तो भारत को एक ऐसा गवैया मिला, जैसा रहती दुनिया तक दोबारा नहीं आएगा।

भारत में फिल्मी भजन एक से एक हैं। लेकिन ‘मन तड़पत हरि दर्शन’ जैसा कोई नहीं। इसके निर्माण की कहानी दिलचस्प है। इसकी रचना शकील बदायूनी ने की, गाया रफी साहब ने और संगीत नौशाद ने तैयार किया। क्या आज ये हो सकता था? फतवा जारी नहीं हो जाता ? मुगले आजम जैसी फ़िल्म भारत में दोबारा नहीं बनेगी। ये फ़िल्म तब एक करोड़ में बनी थी। उस समय सोना सौ रुपये भर था आज 46 हजार के आसपास है। फ़िल्म में तानसेन पर गाना फिल्माना था और बड़े गुलाम अली साहब से गवाना था। लेकिन गुलाम अली फ़िल्म मे
गाने को अच्छा नहीं मानते थे। उन्होंने 25 हज़ार रुपये मांग लिए कि ये नहीं देंगे। तब वह बड़ी रकम थी। पर फ़िल्म के निर्देशक के. आसिफ ने फौरन हां कर दी। और बड़े गुलाम अली को मानना पड़ा।

नौशाद ने बैजू बावरा में डीबी पलुस्कर और अमीर खान से भी क्लासिकल संगीत वाला गाना गवाया। ये नौशाद ही थे जिन्होंने फिल्मों में नोटेशन शुरू किया । कभी किसी की नकल नहीं की।भारतीय संगीत का दामन नहीं छोड़ा और ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं।

उन्होंने भारतीय वाद्य यंत्रों का ही प्रयोग किया। बदले समय में संगीत बदला और नौशाद को इंडस्ट्री ने भुला दिया। लेकिन उन्होंने समझौता नहीं किया। अंत तक कहते रहे कि हमारा संगीत ही रहेगा और उसे ही लोग सुनते रहेंगे। फिर आया छह मई 2006 और हमने संगीत के इस रत्न को, पुरोधा को खो दिया। उनका रचा गाना, कि आज पुरानी राहों से कोई मुझे आवाज न दे, रह-रह कर याद आ जा रहा है। लेकिन हम कहेंगे कि आवाज़ नहीं देंगे तो क्या करेंगे। आपके गाने सुनते रहेंगे, जब तक सांस चलेगी ।

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