वाराणसी। कुछ दशकों पहले तक रंगों के महापर्व होली में प्राकृतिक रंगों की धूम हुआ करती थी। लेकिन आज बात होती तो है प्राकृतिक रंगों की, पर विश्वसनीयता का संकट कहीं न कहीं मन में संशय का भाव जरूर पैदा करता है। क्योंकि अब न पलाश के जंगल दिखते हैं, न हरसिंगार के वृक्षों की बहुतायत। अलबत्ता कहीं-कहीं सेमल के फूल जरूर दिख जाते है। सो, अब न इनके फूलों का रंग बनता है ना संरक्षण की बात ही सिरे चढ़ती दिखती है। यह अलग बात है कि 11 वर्ष पूर्व पलाश पुष्प को राजकीय पुष्प का दर्जा मिला, मगर नई पीढ़ी तो इनके स्वरूप से आज भी अंजान है।

अब आर्टिफिशियल रंगों का है प्रचलन

अभी तो अधिकांश तौर पर प्रचलन में कृत्रिम रंग और त्वचा के लिए नुकसानदायक पेंट ही हैं जिनका होली में जमकर प्रयोग होता है। आज से पांच-छह दशक पूर्व तक पूरे पूर्वांचल में पलाश के पौधों एवं वृक्षों की बहुतायत थी, जंगल आबाद थे। पुरनिए बताते हैं कि जब वसंत ऋतु में इन जंगलों में पलाश यानी टेसू के फूल खिलते थे तो दूर तलक दिखते चटख लाल रंगों की आभा ऐसी लगती थी मानों जंगल में आग लगी हो। अब जंगल खेत में बदल गए। अब कहीं-कहीं इनके वृक्ष इक्का-दुक्का दिखाई देते हैं। उन दिनों होली आते ही पलाश (टेसू) और हरसिंगार के फूलों को पानी में भिगोकर रंग बनता था। इन फूलों के साथ सेमल का पुष्प भी भिगोया जाता था।

प्राकृतिक रंग त्वचा को नही पहुँचाते हैं नुकसान

त्वचा के लिए बेहद फायदेमंद इन फूलों से बने रंग से न त्वचा जलती थी ना दाग और खुजली होती थी। इन पुष्पों के औषधीय गुण सर्वविदित हैं। आज भी हरसिंगार का फेसपैक प्रयुक्त होता है। पलाश पेट रोगों के लिए रामबाण है तो हरसिंगार साइटिका व जोड़ों के दर्द, बवासीर के लिए अचूक दवा है। सेमल के पुष्प से अब भी काजल बनता है। बहरहाल अब पलाश और हरसिंगार तो गायब हैं सेमल भी कम ही दिखता है। सेमल का प्रयोग भी चलन से बाहर है। अब तो कृत्रिम रंगों का ही नहीं वरन पेंट का भी खुला प्रयोग होता है। ऐसे में बाजार में मौजूद प्राकृतिक रंगों पर भरोसा खतरे को न्‍योता ही है।

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