वाशिंगटन (प्रेट्र) । कोरोना मरीजों के फेफड़ों को होने वाले नुकसान और अंगों को बेकार होने से बचाने के लिए भारतीय मूल की अमेरिकी डॉक्टर ने एक इलाज की खोज की है। भारत में जन्मीं और टेनेसी की सेंट ज्यूड चिल्ड्रेन रिसर्च हॉस्पिटल में कार्यरत डॉ. तिरुमला देवी कन्नेगांती का इससे संबंधित अध्ययन जर्नल सेल के ऑनलाइन संस्करण में प्रकाशित हुआ है।
उन्होंने चूहों पर शोध के दौरान पाया कि कोरोना होने पर कोशिकाओं में सूजन की वजह से अंगों के बेकार होने का संबंध ‘हाइपरइनफ्लेमेटरी’ प्रतिरोध है जिससे अंतत: मौत हो जाती है। इस स्थिति से बचाने वाली संभावित दवाओं की उन्होंने पहचान की है।
शोधकर्ता ने विस्तार से अध्ययन कर यह पता लगाया है कि कैसे सूजन वाली कोशिकाओं के मृत होने के संदेश प्रसारित होते हैं जिसके आधार पर उन्होंने इसे रोकने की पद्धति का अध्ययन किया। सेंट ज्यूड अस्पताल के इम्यूनोलॉजी विभाग से जुड़ीं डॉ. कन्नेगांती ने कहा, ‘काम करने के तरीके और सूजन पैदा करने के कारणों की जानकारी बेहतर इलाज पद्धति विकसित करने में अहम है।’
डॉ. कन्नेगांती सेंट ज्यूड चिल्ड्रेन रिसर्च हॉस्पिटल से जुड़ी हैं
गौरतलब है कि कन्नेगांती का जन्म और पालन-पोषण तेलंगाना में हुआ है। उन्होंने वारंगल के काकतिय विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र, जंतु विज्ञान और वनस्पति विज्ञान से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने परास्नातक और पीएचडी की उपाधि भारत के उस्मानिया विश्वविद्यालय से प्राप्त की। वर्ष 2007 में डॉ. कन्नेगांती टेनेसी राज्य की मेमफिस स्थित सेंट ज्यूड अस्पताल से जुड़ी हैं।
उन्होंने कहा, ‘इस शोध से हमारी समझ बढ़ेगी। हमने उस खास साइटोकींस (कोशिका में मौजूद छोटा प्रोटीन जिससे संप्रेषण होता है) की पहचान की है जो कोशिका में सूजन पैदा करता है और व्यक्ति को मौत के रास्ते पर ले जाता है। इस शोध में श्रद्धा तुलाधर, पीरामल समीर, मिन झेंगे, बालामुरुगन सुंदरम, बालाजी भनोठ, आरके सुब्बाराव मलिरेड्डी आदि भी शामिल हैं।
डब्ल्यूएचओ ने दी रेमडेसिविर का इस्तेमाल नहीं करने की सलाह
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने शुक्रवार को सलाह दी कि अस्पताल में भर्ती मरीजों पर कोरोना वायरस के इलाज में रेमडेसिविर का इस्तेमाल नहीं किया जाए।
एक बयान के मुताबिक, डब्ल्यूएचओ ने अस्पताल में भर्ती मरीजों में रेमडेसिविर के इस्तेमाल के खिलाफ सशर्त सिफारिश जारी की है, भले ही बीमारी कितनी भी गंभीर हो। इसकी वजह यह है कि वर्तमान में इस बात के कोई सुबूत नहीं हैं कि रेमडेसिविर इन मरीजों में जीवन या अन्य परिणामों में कोई सुधार करती है।