दिल्ली में आम आदमी पार्टी (AAP) और अरविंद केजरीवाल के वापसी के बाद अब सबकी निगाहें बिहार के ऊपर टिकी हैं जहां इस साल अब से नौ महीने बाद चुनाव होने हैं। इस चुनाव को लेकर लोगों में सबसे ज़्यादा जिज्ञासा इस बात की है कि आख़िर होगा क्या होगा ? वर्तमान में जो रुझान हैं उसके हिसाब से ये मुक़ाबला पिछले 15 वर्षों से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और मुख्य विपक्षी दल राजद के नेता तेजस्वी यादव के बीच होगा। लेकिन जो ज़मीनी राजनीतिक और सामाजिक हक़ीक़त है उसके हिसाब से ये तय माना जा रहा है कि नीतीश कुमार की सता में वापसी तय है। नीतीश कुमार अगर आज के दिन बिहार की राजनीति में अपराजेय दिख रहे हैं तो उसके एक नहीं कई कारण हैं।

जनता दल और भाजपा के गठजोड़ का जवाब लालू यादव की राजद और कांग्रेस का गठबंधन किसी कीमत पर नहीं दे सकता। क्योकि लालू जेल मे है और उनके उत्तराधिकारी तेजस्वी में वो तेज नहीं है कि जिससे वो नीतीश को चुनौती दे सकेंगे । राहुल के बल पर कांग्रेस का बिहार में भी बुरा हाल ही होना है।

फिर, सबसे बडी बात है नीतीश का चेहरा। नीतीश ने अनुभवी और शांत प्रकृति के नेता के रूप में अपनी पहचान बनायी है। जिसके कारण पिछले 15 वर्षों में बिहारियों को कुछ मिला या नहीं, चाहे वो उनके विरोधी हों या समर्थक, सब एक बात का उन्हें श्रेय ज़रूर देते हैं कि उन्होंने बिहार में सामाजिक शांति क़ायम की. सामाजिक शांति के अभाव में वो चाहे कांग्रेस शासन हो या लालू-राबड़ी के 15 वर्षों का शासन, सब में बिहार में जातीय नरसंहार और संप्रदायिक दंगे होते थे। ये बात अलग है कि नीतीश इन नरसंहार के दोषियों को सज़ा दिलाने में विफल रहे।

नीतीश की वापसी का एक और प्रमुख कारण ये भी है कि जब से सत्ता में आये हैं, उन्होंने अपना सामाजिक आधार, ख़ासकर वोट बैंक ना केवल बढ़ाया है बल्कि मजबूत भी किया है। बिहार में अब सत्ता का दारोमदार जिन अति पिछड़ा वोटरों पर है, वो मज़बूती से नीतीश कुमार के साथ इसलिए नहीं है कि उन्होंने उन्हें पंचायतों में आरक्षण दिया बल्कि उनके लिए एक नहीं कई सारी स्कीम चलायी और अब तो बिहार से इस समुदाय के अलग-अलग जातियों से छह सांसद लोकसभा गये. कुछ लोकसभा क्षेत्रों में तो नीतीश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग का ये प्रभाव है कि वहां जीतने और हारने वाला उम्मीदवार इसी वर्ग से होगा.म। जबकि तेजस्वी यादव का राजद इस सच्‍चाई को लेकर अभी जगा है और कुछ ज़िलों में उन्होंने ज़िला अध्यक्ष इसी वर्ग से बनाया है. लेकिन इसका सीधा असर राजद के पक्ष में वोटिंग में पड़ेगा ही, यह कोई नहीं कह सकता।

नीतीश की जीत आज की तारीख़ में इसलिए भी तय है कि इस बार वो विधानसभा चुनाव में पहली बार उस एनडीए के नेता और चेहरा के रूप में जा रहे हैं जिसमें रामविलास पासवान भी शामिल हैं। पासवान की अपनी जाति के छह प्रतिशात वोट पर मजबूत पकड़ है और 2010 में जब रामविलास पासवान लालू यादव के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे और नीतीश कुमार के साथ मात्र BJP थी, तब नीतीश कुमार बनाम लालू यादव के उस चुनाव में NDA को 206 सीटों पर विजय मिली थी।

नीतीश कुमार के पास जहां रामविलास पासवान हैं वहीं तेजस्वी यादव के पास कोई ऐसा मज़बूत सहयोगी नहीं जो उनके वोट में कोई इज़ाफ़ा कर रहा हो। लोकसभा चुनाव के बाद उनकी पार्टी ने उपेन्द्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और मुकेश निषाद से किनारा कर लिया है जिसके बाद एक भ्रम की स्थिति है और केवल मुस्लिम यादव वोट की बुनियाद पर तेजस्वी हों या लालू यादव सबको मालूम है कि 25 से ज़्यादा सीटों पर दाल नहीं गलने वाली ।

नीतीश जब इस बार वोट मांगने जाएंगे तब उनके पास पिछले बार किये गये वादे जिसे सात निश्चय का नाम दिया था, उसके अधिकांश वादों को पूरा कर दिखाने का एक मज़बूत आधार होगा जैसे उन्होंने हर घर बिजली समय से पहले पहुंचायी. वैसे ही हर घर नल का जल इस साल के जून महीने तक सभी घरों में पहुंच जायेगा जिसका एक अलग सामाजिक प्रभाव है। इन योजनाओं के साथ सबसे बड़ी बात है कि इसका लाभ समाज के हर वर्ग के लोगों को मिला जिसमें राजनीतिक आधार पर उनकी आलोचना करने वाले लोग भी शामिल हैं।

इन योजनाओं के अलावा छात्रों के लिए चार लाख का बिना ब्याज का क़र्ज़ या बेरोज़गारी भत्ता जैसी योजना से भी नीतीश कुमार की साख और मज़बूत हुई। वहीं पंचायत के बाद नौकरियों में महिलाओं का आरक्षण भी उनके लिए सत्ता में वापसी में मददगार साबित होगा। हालांकि स्कूल कॉलेज में पढ़ाई का हाल ख़स्ता है लेकिन बिहार में चुनाव में ये कभी वोट डालने का मुद्दा नहीं रहा।
इन सबके अलावा जो जल जीवन हरियाली कार्यक्रम उन्होंने शुरू किया है, इस योजना के तहत गांव-गांव में जलस्त्रोत जैसे कुआं, तालाब, नहर, पायिन को पुनर्जीवित किया जा रहा है। जिसका लाभ हर जाति और वर्ग के लोगों को मिलेगा। इस योजना के बाद नीतीश के कट्टर आलोचक भी मान रहे हैं कि उनके ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी लहर बहुत कम हुई है।

भले नीतीश कुमार पिछले तीन वर्षों के दौरान डबल इंजन की सरकार से क्या फ़ायदे हुए, उसे सार्वजनिक रूप से गिनाने में शर्माते हैं क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी मांगें नहीं मानीं, चाहे पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने की मांग हो या बिहार को विशेष राज्य का दर्जा. लेकिन सचाई है कि चुनाव में नीतीश कुमार, नरेंद्र मोदी, अमित शाह और रामविलास पासवान एक तरफ़ हों तब उन्‍हें पराजित करना तेजस्वी यादव के लिए इसलिए सम्भव नहीं दिखता क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद बिहार की राजनीति उन्होंने बहुत अनमने ढंग से की है। ये बात अलग है कि कम उम्र का होने का लाभ उन्‍हें भविष्य में कभी ना कभी मिल ही जायेगा।

नीतीश की सत्ता में वापसी इसलिए भी तय है कि उन्होंने भाजपा के साथ अपने संबंध मधुर बना लिए हैं। वो पटना से दिल्ली तक भाजपा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं। वो भाजपा को ख़ुश करने के लिए झारखंड विधानसभा चुनाव में डमी उम्मीदवार भी देते हैं और दिल्ली में सीटें मिलने पर तीन सभाओं को भी सम्बोधित करते हैं। इसका एक प्रमाण उस समय मिल गया जब उन्होंने भाजपा को ख़ुश रखने के लिए प्रशांत किशोर को नागरिकता क़ानून के बहाने पार्टी से बाहर का दरवाज़ा दिखा दिया। नीतीश ऐसा कोई काम या कदम नहीं उठाते जिससे भाजपा को सफ़ाई या बचाव करना पड़े। भाजपा को प्रशांत किशोर का उनके विरोधियों के लिए काम करना बिल्कुल नागवार गुज़र रहा था और नीतीश ने ये भांपते हुए उन्हें ख़ुश करने के लिए पहले अपने नज़दीकी नेताओं से प्रशांत किशोर पर ख़ूब हमला करवाया और फिर जैसा उनका अपना राजनीतिक रिकॉर्ड रहा है, उन्‍हें बाहर का दिया।

नीतीश ने बिहार में शराबबंदी की है जिसके कारण पूरे राज्य में एक समानांतर व्यवस्था क़ायम हो गयी है। गांव-गांव गली-गली आपको होम डिलिवरी करने वाले लोग मिल जाएंगे। यह धंधा बिहार पुलिस की मिली भगत से नहीं बल्कि उनकी भागीदारी से फल फूल रहा है और इस काली कमाई में लगे लोगों के लिए नीतीश मसीहा हैं। ऐसे ग़लत काम में लगे बिहार के अधिकांश पुलिसवाले हों या अपराधी या शराबबंदी सफल हैं के नाम पर नीतीश कुमार के सरकर से फ़ायदा लेने वाले लोग, उनकी वापसी निश्चित रूप से सुनिश्चि‍त करेंगे।

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