श्रीलंका आजादी के बाद इतिहास के सबसे खराब आर्थिक संकट से जूझ रहा है जिसने देश में अराजकता की स्थिति पैदा कर दी है। सामानों की कमी और महंगाई से परेशान लोग सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं।बीते कुछ दशकों में श्रीलंकाई नागरिकों ने शायद इससे पहले इतना बुरा दौर न देखा हो, जब उन्हें रोजमर्रा की चीजों के लिए घंटों लाइन में लगना पड़ा हो। समस्या लाइन में लगने की ही नहीं, बल्कि दूध, दवा, ईंधन के अभाव और उनकी आसमान छूती कीमतों की भी है। लोगों का घरों में बैठना भी मुहाल है, क्योंकि वहां उन्हें घंटों तक कटी बिजली के वापस आने का इंतजार करना होता है।
साउथ एशिया के खूबसूरत समुद्री तटीय देशों में से एक श्रीलंका आज अपनी बर्बादी के कगार पर पहुंच गया है। श्रीलंका की बर्बादी में सबसे बड़ा योगदान विदेशी मामलों के जानकार चीन को मान रहे हैं। जानकारों का मानना है कि चीन ने जिन नियम शर्तों के आधार पर जब से हंबनटोटा बंदरगाह को टेकओवर किया है उसी के बाद से श्रीलंका की आर्थिक स्थिति डांवाडोल होने लगी। रही सही कसर कोरोना की वजह से टूटी अर्थव्यवस्था और उसको दुरुस्त करने में नाकाम रही उनकी सरकार ने पूरी कर दी। विदेशी मामलों के जानकारों का कहना है कि श्रीलंका के लिए इस स्थिति से उबरना अब फिलहाल बहुत जटिल होता जा रहा है।
विदेशी मामलों के जानकारों का कहना है कि श्रीलंका की अर्थव्यवस्था 2017 के बाद से ही डांवाडोल होने लगी थी। दरअसल श्रीलंका की बिगड़ती अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा योगदान देश के दक्षिणी इलाके में बनाए गए हंबनटोटा बंदरगाह को लेकर था। विदेशी मामलों के जानकार और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अभिषेक सिंह कहते हैं कि दरअसल 2016 में जब हंबनटोटा बंदरगाह के ऑपरेशन के बाद तकरीबन पौने दो सौ मिलियन डॉलर की आय हुई तभी अंदाजा लगाया जाने लगा था कि श्रीलंका का सबसे बड़ा निवेश फेल हो चुका है। इस बात की जानकारी श्रीलंका के आर्थिक विशेषज्ञों को भी हो चुकी थी।
यही वजह है कि श्रीलंका ने अपने बंदरगाह की हिस्सेदारी चीन को देने पर सहमति जता दी। हंबनटोटा बंदरगाह में चीन की मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स ने तकरीबन डेढ़ सौ बिलियन डॉलर के करीब का सौदा कर एक बड़ी हिस्सेदारी लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी। यह वही वक्त था जब श्रीलंका में अलग-अलग बड़े-बड़े शहरों और राजनैतिक दलों में ना सिर्फ देश के आने वाले भविष्य की चिंता की चर्चाएं शुरू हुई बल्कि विरोध भी बड़े स्तर पर शुरू हो गया था।
प्रोफेसर अभिषेक सिंह कहते हैं कि श्रीलंका को अपनी डूबती हुई अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए चीन के साथ हुई तमाम शर्तों में बदलाव करने के लिए नए सिरे से सोचना पड़ा, लेकिन उसने सिरे से सोचने में चीन में कोई भी दिलचस्पी नहीं दिखाई। दरअसल श्रीलंका अब बदहाल होती अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए नया एमओयू तैयार करना चाहती थी, लेकिन चाइना ने उस पर हामी नहीं भरी।
आर्थिक विशेषज्ञों और विदेश मामलों के जानकारों का कहना है कि श्रीलंका में गिरती अर्थव्यवस्था की शुरुआत उसी करार के साथ शुरू हो गई थी। प्रोफेसर अभिषेक बताते हैं कि एशियन डेवलपमेंट बैंक (ADB) की एक रिपोर्ट ने भी इस बात का उल्लेख किया था कि श्रीलंका की अर्थव्यवस्था अब सुधरने की बजाय नीचे की ओर जा रही है। श्रीलंका के पास विदेशी मुद्रा भंडार न सिर्फ कम होता जा रहा था बल्कि निवेश भी पूरी तरीके से खत्म होता जा रहा था।
वह कहते हैं कि चीन के दबाव के चलते और लचर राजनैतिक नेतृत्व के कारण श्रीलंका आज अपने इन हालातों में पहुंचा है। उनका कहना है कि ऐसा नहीं है कि श्रीलंका को इस बात की सूचना या जानकारी नहीं मिल पाती थी कि उनकी आने वाले दिनों में अर्थव्यवस्था और देश के हालात क्या होने वाले हैं। प्रोफेसर अभिषेक के मुताबिक श्रीलंका की लचर राजनीतिक व्यवस्था के चलते हुए आईएमएफ ने भी अपने हाथ खड़े कर लिए। यही नहीं श्रीलंका में कोविड की वजह से आर्थिक हालात बदहाल हुए उससे भी निपटने के लिए उनकी सरकार ने कोई बंदोबस्त नहीं किए।
विदेशी मामलों के जानकार और साउथ एशिया पेसिफिक ट्रेड फोरम के वरिष्ठ सदस्य प्रोफ़ेसर एसएल पुनिया कहते हैं कि श्रीलंका की कमजोर अर्थव्यवस्था में चीन ने ताबूत में आखिरी कील ठोंकने जैसी हरकतें की हैं। कहते हैं कि इसकी सबसे बड़ी वजह यही थी कि श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पहले से ही इतनी कमजोर थी कि वह कोविड के बाद तो बुरी तरह टूट गई।
वह बताते हैं कि श्रीलंका के पास विदेशी मुद्रा भंडार जितना था उससे दोगुने से ज्यादा का तो कर्जा श्रीलंका के पर लद चुका था। दुनिया के ज्यादातर देशों ने जब कोविड के दौरान और बाद में अपने मुल्कों को आर्थिक और मानसिक स्तर पर मजबूत करना शुरू किया और नए रोजगारों के माध्यम से प्राथमिकता दी तो श्रीलंका अपने पार्टनर चीन की ओर निगाहें लगाकर देख रहा था। चीन ने श्रीलंका की कोई मदद उस स्तर पर नहीं कि जिस तरीके से उसके पहले आर्थिक और व्यापारिक लाभ देखकर एमओयू साइन किए जा रहे थे। तमाम चरणों की वार्ता के बाद चीन ने श्रीलंका को मदद दिलाने का जो भरोसा भी किया उसमें इतनी शर्तें लगा दी कि श्रीलंका को उबर पाना बड़ा मुश्किल हो रहा था।
वह कहते हैं कि कुल मिलाकर सारे राजनीतिक और आर्थिक हालातों को ध्यान में रखते हुए इस बात को कहने में कोई गुरेज नहीं है कि आज की लंका को जिन हालातों से गुजर ना पड़ रहा है उसमें चीन का सबसे बड़ा हाथ है।