समाज की कमजोरियां थी कि हम अयोध्या तक नहीं बचा सके। मंदिर के अवशेषों पर मस्जिद खड़ी हो गई। जब लड़कर वापस मंदिर नहीं बना सकते थे तब राजा जय सिंह ने 1717 में अपना खजाना खोल दिया और पूरी जमीन ही खरीद ली। हिन्दू मस्जिद के बाहर खड़े होकर पूजा करने लगे। इस बीच कई छोटी बड़ी लड़ाईयां चलती रही।
अंग्रेज राज आया और 28 नवंबर 1858 को 25 निहंग सिखों ने मस्जिद कब्जा ली और ये मामला पहली बार अंग्रेजी कानूनी कागजों में आया। पुलिस लगाकर उन्हें बाहर निकाला गया और रेलिंग लग गई। हिन्दू रेलिंग के उस पार खड़े होकर पूजा करने लगे।
1883 में मुंशी राम लाल और राममुरारी राय बहादुर का लाहौर निवासी कारिंदा गुरमुख सिंह पंजाबी वहाँ पत्थर वग़ैरह सामग्री लेकर आ गया और प्रशासन से मंदिर बनाने की अनुमति माँगी, मगर डिप्टी कमिश्नर ने वहाँ से पत्थर हटवा दिए
29 जनवरी 1885 में ये मामला पहली बार कोर्ट पहुंच गया।
22-23 दिसंबर 1949 की रात को मस्जिद के अंदर मूर्तियां रख दी गई।
1980 के दशक में कारसेवा शुरू हुई और 1992 में ढांचा गिरा दिया गया।
अगले 50 वर्ष हाई कोर्ट और फिर 8-9 साल केस सुप्रीम कोर्ट में चलता रहा।
ये जानते हुए कि हम सफल नहीं होंगे फिर भी चार सदियों तक ये संघर्ष चलता रहा और आज बूंद-बूंद बराबर संघर्ष भी कोर्ट के इस निर्णय का आधार बना।
जिन अवशेषों पर मस्जिद बनाई गई आज वो अवशेष ही सबूत बन कर खड़े हो गए।
जो लोग मंदिर ना होते हुए भी मस्जिद को पूजते रहे उन्होंने साबित किया कि हिन्दुओं ने किसी भी कालखण्ड में, विपरीत समय में भी इस भूमि की उपासना बंद नहीं की।
अंग्रेजी काल के संघर्ष ने बताया कि ये केस आधुनिक कोर्ट स्थापित होते ही न्याय के लिए उनके सामने पहुंच गया।
किसी ने मूर्ती रखी तो राम लला विराजमान पक्षकार बन गए।
किसी ने कारसेवा की तो आज हम ये दिन देख रहे हैं
कई बार आप का तुच्छ सा दिखने वाला संघर्ष भी संचित होकर आने वाली पीढियों के लिए गेमचेंजर बन जाता है।
आज नमन है हर उस आत्मा को जिसने भारत से राम को अलग नहीं होने दिया
ना संघर्ष का रास्ता छोड़ा, ना हमें भूलने दिया
491 वर्षों के बाद हम फिर लौटे हैं
युनान, मिस्त्र, रोम, पर्शिया सब मिट गए
लेकिन 2019 में भी हमारी कहानी जारी है
✍ अविनाश त्रिपाठी