लक्ष्मी कान्त द्विवेदी

भले ही दिल्ली के चुनाव नतीजों के अलग-अलग निहितार्थ निकाले जा रहे हों, लेकिन इससे यह बात एक बार फिर साबित हो गयी है कि, भारत का मतदाता दिनों-दिन परिपक्व होता जा रहा है। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए अत्यंत शुभ संकेत है कि, अब लोग जानते हैं कि, केन्द्र सरकार क्या करती है, राज्य सरकार क्या करती है और स्थानीय निकाय क्या करते हैं। लोग अब अच्छी तरह समझ गये हैं कि, कोई दल या नेता नहीं, बल्कि वे खुद इस देश के भाग्यविधाता हैं।

अब पिछलग्गू नहीं, मालिक बन चुके हैं मतदाता

दरअसल दिल्ली के लोग जानते थे कि, सीएए, एनआरसी, एनपीआर, 370, राम मंदिर, कानून-व्यवस्था, तीन तलाक आदि केन्द्र के मुद्दे हैं, जिनके लिए उसने पहले ही केजरीवाल के लाख सिर पटकने के बावजूद लोकसभा की सात की सात सीटें मोदीजी को थमा दी हैं। लेकिन जब बात बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य की आयी, तो उन्हें केजरीवाल के कामकाज का पलड़ा भाजपा के किसी अज्ञात नेता की तुलना में भारी लगा। गरीबों को मुफ्त मकान, किसानों को हर साल छह हजार और आयुष्यमान योजना से होने वाले फायदे केजरीवाल के मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, बसों में महिलाओं के मुफ्त सफर, मोहल्ला क्लीनिक, बेहतर स्कूल के सामने कमतर माने गये। इसीलिए उन्होंने दिल्ली का राज सौंपने की मोदी-शाह की अपील ठुकरा दी। इशारा साफ है, आप जो सवाल उठा रहे हैं, उनकी जिम्मेदारी आपकी है। आपके काम काज पर 2019 में मुहर लगा दी गयी है। दिल्ली की गद्दी चाहिए तो भरोसेमंद नेता और तार्किक योजना के साथ आइये। तभी उस पर विचार किया जाएगा। सिर्फ अपनी उपलब्धियों का बखान करने से कुछ नहीं होगा। लोग केन्द्र की मोदी सरकार और राज्यों की भाजपा सरकारों के कामकाज में जमीन आसमान के अंतर को भी अच्छी तरह जानते-समझते हैं। 2019 में लोकसभा के साथ ही हुए उड़ीसा के विधानसभा चुनावों में यह बात खुल कर सामने आयी थी। दिल्ली के चुनाव में खुद अरविन्द केजरीवाल भी यही अपील करते फिर रहे थे। यही वजह है कि, लोकसभा चुनाव में एक पार्टी को शत-प्रतिशत सीटें देने वाला राज्य विधानसभा चुनावों में उसी से सत्ता छीन भी लेता है। भले ही राजनीतिज्ञ जनादेशों की अपने-अपने हिसाब से व्याख्या करते रहें, स्थानीय मुद्दों पर हार-जीत में राष्ट्रीय सरोकार से जुड़े सवालों के जवाब तलाशते रहें, लेकिन यह बात दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ है कि अब मतदाता अच्छी तरह से समझ रहा है कि, उसे किससे क्या काम लेना है। वह पिछलग्गू बनने के बजाय मालिक बनता जा रहा है।

शुरुआती दौर में में काफी भोले थे मतदाता

भारत के लोगों को 1952 में लोकतांत्रिक अधिकार मिले थे। राजशाही में सदियां गुजार देने वाली जनता बहुत भोली थी। उसने ये अधिकार लेकर सामने आये गांधी और नेहरू को अपना नायक मान लिया। जहां उन्होंने कहा, वहीं ठप्पा लगा दिया। उनकी तमाम मनमर्जियों और गलतियों पर आंख मूंदे रहे। अनेक स्थानों पर रसूखदार और दबंग मारपीट कर उनके लोकतांत्रिक अधिकारों पर डाका भी डालते रहे। लेकिन जैसे-जैसे गलत नीतियों के दुष्परिणाम सामने आने लगे, लोगों का जीना दूभर होने लगा, तो नायक मोह की धुंध भी छंटने लगी। 1977 में पहली बार सत्ता बदल भी दी गयी, लेकिन बूथों की लूट और मतपेटियों की हेरा-फेरी का सिलसिला नहीं थमा। मौका मिलने पर किसी भी दल को इससे कोई गुरेज नहीं था।

शेषन ने भयमुक्त चुनाव दे कर भारतीय लोकतंत्र की अविस्मरणीय सेवा की

वैसे भारतीय लोकतंत्र का असली विकास 1990 में शुरू हुआ, जब टी. एन. शेषन भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त बने। उन्होंने चुनावों को हिंसा और धांधली मुक्त कर भारतीय लोकतंत्र की अविस्मरणीय सेवा की। भयमुक्त होते ही मतदाताओं की परिपक्वता में बड़ी तेजी से इजाफा होने लगा। आधुनिक तकनीक के रूप में ईवीएम ने धांधली और मतदान व मतगणना में होने वाली देर कम करने में मदद की। वैसे यदि आधुनिक तकनीक की मदद से मोबाइल को बैंकों की तर्ज पर मतदान से भी जोड़ दिया जाए, तो मतदान 90 प्रतिशत तक पहुंच सकता है। मतदाता सूची की गड़बड़ी और कम मतदान हमारे लोकतंत्र की ऐसी खामियां हैं, जो हमें शर्मिन्दा करती हैं। आधुनिक तकनीक इस दिशा में काफी मददगार साबित हो सकती है। बशर्ते हमारी इच्छा शक्ति मजबूत हो।

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