पदम पति
वरिष्ठ पत्रकार

मुख्य धारा की मीडिया से बेपरवाह हिंदी भविष्य के साथ पूरी शिद्दत से जुड़ती जा रही है. कहने का तात्पर्य यह कि विद्युतीय तेजी के साथ देश की सोशल मीडिया हिंदी पर ही आश्रित होती जा रही है. ठीक है कि फांट की जटिलताओं के चलते रोमन लिपि का प्रयोग हो रहा है. भाषा सस्ती भी  दिखती है. लेकिन यह भी ध्रुव सत्य है कि भाषा की लोकप्रियता उसके सरलीकरण पर ही आश्रित रहती है. दुनिया की सबसे लोकप्रिय भाषा अंग्रेजी इसीलिए सबसे अवैज्ञानिक कही जाती है. जर्मन और फ्रेंच को आप इस श्रेणी में नहीं ले सकते. खैर, आज हिंदी दिवस है और हम अब गर्व से कह सकते हैं कि सरकारी उपेक्षाओं के बावजूद हिंदी का मान बढा है. 

भाषा ही अभिव्यक्ति का माध्यम है. परंतु दुर्भाग्यवश श्रेणियों में बंटे समाज में बोली तो सबके पास होती है पर हर कोई बोलने के लिए अधिकृत नहीं होता. समाज के विभिन्न सम्पदाओं के मालिकान, चाहे अर्थ हो, विद्या हो या राजनीति, सिर्फ वे ही बोलने के नैसर्गिक अधिकारी होते हैं. शेष जनता का काम उनको सुनना या सुगबुगाना भर ही होता है. इसलिए वे स्वयंभू ठेकेदार जिस भाषा में बात करते है,  वही प्रचलित भाषा मान ली जाती है. इस मानक पर यदि हम हिंदी को कसना चाहें तो मुगलिया सल्तनत के दौरान अपने ही घर में वह मात्र सुगबुगाहट ही रही. अंग्रेजों के जमाने में वह बद से बदतर हुई और स्वाधीन भारत के पहले छह दशक में उसकी हालत और भी नाजुक हो गयी.

मध्य युग में जहां कबीर, सूर और तुलसी अपवाद रहे वहीं ब्रिटिश उपनिवेशवाद के युग में भारतेंदु, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद आदि मरुद्यान जैसे दिखाई पड़े. परंतु हिंदी राजभाषा नहीं बन सकी, क्योंकि ‘राजपाट’ पर कब्जा जमाए सम्पदा के स्वामी न तो हिंदी बोलते थे और न ही उनको हिंदुस्तान से ही कोई मतलब था. उनका तो सब कुछ ‘जेबिस्तान’ से सरोकार रखता था. कहने का मतलब ‘लूटो और जेब भरो’.

अर्से बाद कहीं हिंदी में एक भूचाल दिखायी पड़ा. आम जुबान की भाषा बोलने वाले लोग हिंदी सम्मेलनों में जुटे. अभी तक जहां कुलीन विद्वानों का ही जमावड़ा होता था, वहां स्वयं के संघर्ष के बल पर हिंदी सीखने वाले हों या अपने संघर्ष के हथियार के रूप में हिंदी वाले हों, सब पहुंचे. अब तक विद्वानों के बीच हिंदी चट्टानों के बीच सरोवर जैसी रही जबकि इस बार वह मुक्त धारा बनी. ’चाय गरम, गरम चाय’ के माध्यम से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदी सीखी हो या’ कितने आदमी थे और तेरा क्या होगा कालिया’ के माध्यम से अमिताभ बच्चन ही हिंदी सीखे हों, वस्तुत: इस बार का यह हिंदी दिवस प्रेंमचद के चरित्र होरी, अमीना, शंकर, जियावन, घीसू या गंगी की हिंदी को सम्मान पाना है. एक जन भाषा समादर पा कर अगर सामाजिक सम्पदा की स्वामी हो जाती है तो स्वाभाविक है कि उसे ‘राज भाषा’ की हैसियत मिलनी ही है.

राजा तो इतिहास हो गए मगर राजतंत्र बरकरार है।.नये राजा हिंदी को पराजित पोरस नहीं विजेता सिकंदर जैसी बराबर की हैसियत का मानें, यही उनके लिए श्रेयस्कर होगा. याद रखें हम कि हिंदी न तो कोई अहंकार है और न ही शोषण का अधिकार है, बल्कि हिंदी तो अधिकतर जनसंख्या का प्रतिफलन है. हिंदी को भी याद है कि उसकी आजादी कहां छिपी है, हिदी भाषियों को भी याद है कि दूसरे की आवश्यकता और सम्मान की सुरक्षा में ही अपना स्वाभिमान सुरक्षित है. लगता है हिंदी पर टिका ‘अमलायतन’ कुछ डगमगाया है. लोग इस पर राजनीति न करें, बल्कि प्रयास करें कि हिंदी और हिंदीभाषियों के साथ ही साथ अन्य भाषायीजनों तक राष्ट्रीय सम्पदा का सममात्रिक बंटवारा सम्पन्न हो. किसी की मदद की जरूरत नहीं है हिंदी स्वयं ही वैश्विक धरातल पर प्रथम पांच भाषाओं में प्रमुखता से राज करेगी. आपने अनुभव किया होगा कि वेव की दुनिया में एमेजोन का प्राइम वीडियो हो या नेटफ्लिक्स इन सभी की सिरीज का प्रमुख वर्जन हिन्दी है. कहते हैं न कि रोम मे रहना है तो रोमन होना होगा. इनके व्यावसायिक हित इसी मे हैं कि हिन्दुस्तान मे कमाना है हिट होना है तो हिन्दुस्तानी होना जरूरी है.

जरा कल्पना कीजिए कि अगले साल तक जब 50 – 60 करोड़ लोग हिंदी का प्रयोग इंटरनेट पर करते दिखेंगे, तब उसके छा जाने का क्या यह जबरदस्त  श्रीगणेश नहीं होगा ?’अयमारम्य शुभाय भवतु’।

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