अवसरवाद का सबसे बड़ा प्रदेश?

रांची । झारखंड की राजनीति वाकई समझ से परे है। यहाँ कौन सा नेता कब किस दल में शामिल हो जाएगा? कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता।

विधानसभा के चुनावों की घोषणा से पहले ही नेताओं में पाला बदलने की होड़ लगी रही। कुछ नौकरशाहों ने भी रिटायरमेंट के बाद राजनीतिक दलों का दामन थाम लिया।

पता नहीं कब किसकी कहाँ से क़िस्मत चमक जाए। वैसे नौकरशाहों का राजनीति में आना झारखंड के लिए कोई नई बात नहीं।

राज्य के दो पूर्व पुलिस महानिदेशकों ने ऐसा ही किया. उनके साथ-साथ भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों ने अलग-अलग राजनीतिक दलों का दामन थामा है।

चाहे वो पलामू के सांसद और पूर्व पुलिस महानिदेशक विष्णु दयाल राम हों या फिर हाल ही में सेवानिवृत पुलिस महानिदेशक डीके पांडेय।

पांडेय ने भी भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा है। इसके अलावा वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी अरुण उरांव और रामेश्वर उरांव ने भी सियासत को ज़्यादा अहमियत दी।

इनमें से अरुण उरांव तो भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए जबकि रामेश्वर उरांव ने कांग्रेस को चुना।

ये कड़ी लंबी है क्योंकि इनके अलावा राज्य के गृह सचिव रहे ज्योति भ्रमर तुबिद ने भी भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा।

जबकि पूर्व अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक रेज़ी डुंगडुंग झारखंड पार्टी में शामिल हुए। रेज़ी डुंगडुंग झारखण्ड पार्टी (एनोस एक्का) के टिकट पर सिमडेगा से चुनाव लड़ रहे हैं।

भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी अजय कुमार बहुत दिनों तक कांग्रेस के प्रवक्ता रहे और फिर झारखंड प्रदेश अध्यक्ष। इस बार उन्होंने आम आदमी पार्टी ज्वॉइन कर ली है। अजय कुमार जमशेदपुर से सांसद भी रहे हैं। ये तो थी बात नौकरशाहों और उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं की।

झारखंड एक मात्र ऐसा राज्य है जहां अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग दलों का प्रभाव है और यहां मुद्दे भी अलग-अलग हैं।

यहाँ भाषा भी हर सौ किलोमीटर पर बदल जाती है। मसलन पश्चिम बंगाल से लगे झारखंड के इलाकों की बोली में बंगाली का मिश्रण है।
संस्कृति पर भी इन प्रदेशों का असर देखा जा सकता है।

उसी तरह ओडिशा से लगे हुए इलाके भी अलग मिजाज दिखता है तो बिहार से लगे हुए इलाकों पर बिहारी संस्कृति हावी रही है।

आदिवासियों में भी अलग-अलग संस्कृतियां देखने को मिलती हैं. यहाँ चुनावी मुद्दे भी अलग-अलग हैं।

झारखंड के बोकारो, जमशेदपुर और धनबाद को औद्योगिक क्षेत्र के रूप में जाना जाता रहा है जो इस राज्य के दूसरे हिस्सों से बिलकुल अलग हैं।

राज्य विधानसभा में सिर्फ़ 81 सीटें हैं। यहाँ किसी भी दल या गठबंधन को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता।

ऐसी स्थिति में यहाँ के चुनावी परिदृश्य पर निर्दलीय या छोटे दलों के प्रत्याशियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।

झारखंड एक ऐसा राज्य है जहां एक निर्दलीय उम्मीदवार मधु कोड़ा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए थे जबकी कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल ने उनका समर्थन किया था।

पिछले चुनावों में भी भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था।

बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व वाले झारखंड विकास मोर्चा के आठ में से छह विधायकों ने भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा तब जाकर रघुबर दास के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन पाई।

यही वजह है कि राजनीति, झारखंड का सबसे लुभाने वाला पेशा बन गया है जिसके पीछे सब भाग रहे हैं।

अब चुनावों की घोषणा से पहले के जोड़तोड़ की बात की जाए तो यहाँ कई दलों के प्रदेश अध्यक्षों ने घोषणा से ठीक पहले या बाद में अपने पाले बदले।

उसमे सबसे चर्चित नाम सुखदेव भगत का है जो झारखंड प्रदेश कांग्रेस कमिटी के प्रदेश अध्यक्ष थे।

कहते हैं कि हाल ही में संपन्न लोक सभा के चुनावों में उन्होंने विपक्षी दलों का महागठबंधन बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

अब वो भारतीय जनता पार्टी में चले गए हैं और लोहरदग्गा सीट से वो कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रामेश्वर उरांव के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रहे हैं।

कांग्रेस छोड़ने से पहले वो भारतीय जाता पार्टी की केंद्र और राज्य में सरकारों के ख़िलाफ़ काफ़ी मुखर रहे।

अचानक रातोंरात उन्हें अपने विचार बदलने पड़े और जिन नेताओं की आलोचना कर उन्होंने सुर्खियाँ बटोरीं थीं, अब वो अपनी सभाओं में उनकी जय-जयकार करते दिख रहे हैं।

कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व आईपीएस अधिकारी अजय कुमार ने आम आदमी पार्टी में शामिल होने के साथ-साथ अब कांग्रेस के ख़िलाफ़ खुलकर बोलना शुरू कर दिया है।

वो कांग्रेस से पहले झारखंड विकास मोर्चा में थे और आम आदमी पार्टी उनकी तीसरी पार्टी है।

प्रवीण जायसवाल व्यवसायी हैं और रांची में उनका कारोबार है। वो हैरान हैं और कहते हैं, “कैसे कर लेते हैं नेता ये सब कुछ? आज किसी के साथ, कल किसी के साथ। आज किसी की आलोचना करते हैं। कल उसी की तारीफ़ों के पुल बांधते रहते हैं। जनता बेवकूफ़ ही है। भावनाओं में बहती रहती है।”

अब सिर्फ़ विधायकों की बात की जाए तो राधाकृष्ण किशोर का शुमार अविभाजित बिहार के दिनों में कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में था।

फिर वो भारतीय जनता पार्टी में चले गए और अब ठीक विधानसभा के चुनावों से पहले उन्होंने ‘आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन’ यानी आजसू का दमन थाम लिया।

कुणाल सारंगी, झारखंड मुक्ति मोर्चा के वो विधायक रहे जो सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय हैं।

उनके ट्वीट्स और सोशल मीडिया पोस्ट्स पर वो भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ एक तरह से मोर्चा बंदी करते रहे।

अब वो भारतीय जाता पार्टी में शामिल हो गए हैं और उनको अपने एक महीने पुराने दल के ख़िलाफ़ बोलने का काम मिला हुआ है. चुनाव भी भाजपा के टिकट पर लड़ना है।

वहीं, सिंदरी के भाजपा विधायक फूलचंद मंडल को टिकट नहीं मिला तो वो उस पार्टी में शामिल हो गए जिसके ख़िलाफ़ बोलते-बोलते और संघर्ष करते-करते उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन बिताया। अब वो झारखंड मुक्ति मोर्चा में शामिल हो गए हैं।

झारखंड मुक्ति मोर्चा के शशिभूषण सामद अब बाबूलाल मरांडी की झारखंड विकास मोर्चा में शामिल हो गए हैं जबकि वो मरांडी के बड़े आलोचक के रूप में पहचाने जाते रहे हैं।

कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रहे प्रदीप कुमार बालमुचु भी आजसू में शामिल हो गए हैं और घाटशिला से चुनाव लड़ रहे हैं।
वैसे झारखंड में जनता दल (यूनाइटेड) यानी जदयू का ज्यादा प्रभाव नहीं है. मगर एक दो विधान सभा क्षेत्रों में पार्टी के समर्थकों का कुछ असर ज़रूर है।

एक लंबे अंतराल तक जनता दल (यूनाइटेड) के झारखंड प्रदेश अध्यक्ष रहे जलेश्वर महतो ने भी पार्टी छोड़ दी और वो अब कांग्रेस में शामिल हो गए हैं।

इस बार वो कांग्रेस के टिकट पर लड़ रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी और नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ भाषण दे रहे हैं।

भारतीय जनता पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी भी संगठन के कद्दावर नेताओं में शामिल रहे हैं जो शिबू सोरेन और बाबूलाल मरांडी के ख़िलाफ़ लोहा लेते आए हैं।

मगर पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया और वो अज्ञातवास में हैं। उनकी भी दल बदलने की काफ़ी चर्चाएँ चल रही हैं।

सिर्फ़ बड़े नेता ही नहीं संगठन स्तर पर भी विधानसभा के चुनाव की घोषणा के पहले ही भगदड़ मचने लगी।

सबसे ज़्यादा नेताओं ने या तो भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा या फिर आजसू का। झारखंड मुक्ति मोर्चा, झारखंड विकास मोर्चा और कांग्रेस में भी कई नेता शामिल हुए। एक तरह से सभी दलों में दल बदलू नेताओं की लाइन ही लग गई।

वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र सिंह कहते हैं, “उन्नीस साल पहले जब झारखंड अलग राज्य बना तभी से राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बना रहा। रघुबर दास के अलावा कोई भी मुख्यमंत्री पांच सालों तक अपनी कुर्सी नहीं संभाल पाया।”

वो कहते हैं, “राजनीतिक अवसरवाद का सबसे प्रदेश है झारखंड। उसका उदाहरण है कि यहाँ के पूर्व मुख्यमंत्री, कई पूर्व मंत्री और नौकरशाह भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल जा चुके हैं।”

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