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“मैं तोषप्रवर्ष नाम का शिकारी हूँ और यह समस्त क्षेत्र मेरे अधीन है। मैं सभी प्राणियों और वस्तुओं के लिए समान भाव रखता हूँ। मेरे लिए कोई भी वस्तु एवं जीव अभक्ष्य (जिसे खाया न जाए), अगम्य (जहाँ प्रवेश न किया जाए) और अपेय (जिसे पिया न जाए) नहीं है। क्या करना चाहिए? क्या नहीं करना चाहिए? मैं यह व्यर्थ विचार नहीं करता। मैं इन्द्र से भी बलशाली हूँ, ऐसा मुझे लगता है। इस कारण इस क्षेत्र में मेरी अनुमति के बिना कोई नहीं आ सकता। यही मेरा परिचय है। अब तुम मुझे अपना पूरा परिचय बताओ। तुम कौन हो? कहाँ से आये हो? मेरे अधिकारक्षेत्र में क्यों रुके हो? तुम्हारी कहाँ जाने की इच्छा है?”भृगु पुत्र राम भ्रमित से हो गए। सम्मुख उपस्थित भयंकर देह एवं वाणी वाले व्यक्ति को देख वह संशय में पड़ गये। तत्पश्चात् अनेक संभावनाओं का विचार कर वह बोले, “हे भद्र पुरुष! मैं जमदग्नि का पुत्र हूँ मेरा नाम राम है। मैं अपने पितामह भृगु की आज्ञा से यहाँ भगवान शंकर की तपस्या करने आया हूँ। और बहुत पहले से इस वन में तपस्यारत् हूँ। अतः भक्त वत्सल भगवान शंकर की कृपा प्राप्त होने तक मैं यहीं पर रहूँगा, यही मेरा विचार है। अतः तुम आज ही यहाँ से चले जाओ, जिससे मेरी तपस्या एवं धर्म नियम की कोई हानि न हो। मैं तुम्हारा सम्मान करता हूँ। तुम किसी अन्य क्षेत्र में अपना अधिकार स्थापित कर लो, तुम अपने असीमित बल और निर्भय प्रकृति से ऐसा करने में सर्वथा सक्षम प्रतीत होते हो। तपस्वी और मुनि सफलता के बाद वैसे भी स्थल छोड़ ही देते हैं। अभी इस क्षेत्र में तुम्हारा निवास केवल पाप का कारक होगा और मेरे रहने से यहां का वातावरण शुद्ध ही होगा। अतः उचित है कि तुम ही यह क्षेत्र छोड़ दो।”भृगु नंदन राम के यह वचन सुनकर वह व्याध क्रोध से अपनी आँखें ताम्रवर्ण (ताम्बे के रंग की) करते हुए बोला, “हे ब्राह्मण! क्या मेरे समीप में रहना अत्यर्थ (बहुत बुरा) होगा, जिस कारण से आप इस समय मेरी कृतघ्न (Ungrateful) के समान घृणा कर रहे हैं? मैंने संसार में आपका अथवा किसी अन्य का कहीं, कब, क्या अपकार किया है? हे विप्रवर यदि मेरे समीप रहना मेरा दर्शन तथा मुझसे संवाद आपके लिए इतना कष्टदायक है तो आपको अभी इस आश्रम से दूर चले जाना चाहिए। मैं इस स्थान से कदापि दूर नहीं जाऊँगा।”यह सुनकर भृगु पुत्र राम ने कहा, “हे व्याध! तुम्हारा कर्म अत्यन्त क्रूर है, सभी जीवों के लिए भयावह है। तुम समस्त प्रकार के प्राणियों के हत्यारे हो, अतः ऐसा व्यक्ति सत्पुरुषों द्वारा कैसे परित्याज्य (छोड़ने योग्य) नहीं होगा? इसी कारण से अपने दुष्ट कर्म का विचार कर इस धर्मक्षेत्र से दूर चले जाओ, इसमें बहुत विचार करने की आवश्यकता भी नहीं है। तुम तो समस्त जीवों को दुख ही देते हो। जैसे तुम्हें कोई कांटा भी लग जाए तब तुम्हें कष्ट का अनुभव होता है, वैसे ही सभी प्राणियों को अपने प्राण प्रिय होते हैं। जिनको तुम मारते हो उनकी व्यथा को तुम अन्यथा समझते हो। तुम्हें उससे कोई दुख नहीं होता। यह जान लो कि अहिंसा सनातन धर्म है। अपने प्राणों की रक्षा के लिए तुम दूसरे प्राणियों की हत्या करोगे तो निन्दनीय कैसे नहीं होगे? अतः शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ। अन्यथा तुम्हारे बल से मुझे ही यहाँ से चले जाना चाहिए। आधे क्षण के लिए भी तुम जैसे पापी के साथ रहना कल्याणकारी नहीं है। धर्म के विरूद्ध आचरण और धर्म से द्वेष करने वाला कभी शांति नहीं पा सकता।”यह वचन सुनकर व्याध क्रोधित होकर बोला, “तुम ज्ञान की बड़ी-बड़ी बाते करते हो, परन्तु हो मूर्ख। अनावश्यक अपने शरीर को कष्ट दे रहे हो अतः तुमसे अधिक मूर्ख और कौन है? तुम अपने वृद्ध पिता की सेवा करने के स्थान पर तपस्या का बहाना बना यहाँ रमण कर रहे हो और परिवार पालन के दायित्व से भी कायरों की भाँति भागकर यहाँ छिपे हो। कार्य न करना पड़े, इसलिए अहिंसा, धर्म, तपस्या एवं उपासना जैसी बड़ी-बड़ी बातें बना रहे हो। अपने कुटुम्बियों का भरण-पोषण न करने से निन्दनीय आचरण सक्षम देह वाले युवक के लिए और क्या है?”व्याध ने यह वचन कह कर राम को क्रोध पूर्वक देखा, और आगे पुनः बोला, “जो व्यक्ति अपने दोष को न देखकर दूसरों में दोष निकालता है और उनका उपहास करने का प्रयास करता है उसे मैं तुच्छ मानता हूँ। यदि मैं अपने धर्म को छोड़कर तुम्हारी तरह कर्महीन हो जाँऊ तो मेरा मन मुझे स्वयं धिक्कारेगा। मैं अपने माता-पिता एवं संतानों के भरण-पोषण के लिए अपने धर्म के अनुसार प्राणियों की हत्या करता हूँ। उनके माँस से अपने परिवार का पालन करता हूँ; क्योंकि नियति एवं संस्कार से यही मेरी अजीविका है। जितने माँस से मेरे कुटुम्ब का नित्य पोषण होगा, उससे अधिक यदि मैं हत्या करूँगा, तो वह पाप होगा। अतः तुम मेरी निंदा करो या प्रशंसा करो स्वधर्म एवं स्वकर्म का पालन कदापि अनुचित नहीं है, यह मेरा विश्वास है।”पुनः व्याध ने एक पल विराम ले कर कहा, “इसलिए हे पाखण्डी ब्राह्मण! तुम यह निष्फल तप करना बंद करो । यदि तुम सुख चाहते हो तो इस शरीर को कष्ट देने वाले तप को छोड़कर वापस चले जाओ और अपने कुटुम्ब के प्रति दायित्व का….”सनातन संवाद कथाएं” से, अपनी प्रति ऑनलाइन यहां से ऑर्डर करें:–