मणिकर्णिकाघाट की नजूल की जमीन ; अंग्रेजों के जमाने में ही कर दिया था फर्जीवाड़ा

तथ्य खोजने में प्रशासन के छूटे पसीने

विशेष संवाददाता

वाराणसी। सोनभद्र में जिस तरह से वन भूमि पर फर्जीवाड़े से राजनेताओं और नौकरशाही ने जबरदस्त खेल आजादी के बाद पांचवे दशक से खेला था और जिसकी परिणति पिछले दिनो भयंकर हत्याकांड से हुई और यूपी के सीएम योगी जी को भावुक बयान देना पड़ा कि भगवान राम का वनवास 14 साल का था। लेकिन गरीब आदिवासी जनता तो 70 बरस से वनवास भोग रही थी।

ऐसे न जाने कितने घालमेल प्रदेश ने भुगते हैं। इसी का एक उदाहरण बनारस के महाश्मशान यानी मणिकर्णिका घाट के किनारे भी देखने को मिला है।

दरअसल शहर में बढ़ती जमीन की कीमतों की वजह पिछली सदी की शुरुआत से ही बड़े पैमाने पर वाराणसी के राजस्व और तत्कालीन नगरपालिका के कर्मचारियों की मिलीभगत से फर्जीवाड़ा किया गया। इसमें बहुत से मामले जिनका खुलासा हुआ उनमें यह देखने में आया कि अधिकतर दस्तावेज जो तैयार हुए वे करीब 1374 फसली वर्ष (सन 1965) के पहले की फर्जी वसीयत के आधार पर हुए थे।

मणिकर्णिकाघाट की नजूल भूमि के लिए दस्तावेजों में जो छेड़छाड़ की गई उसमें 1374 फसली को नजरअंदाज करते हुए अंग्रेजों के जमाने के फर्जी दस्तावेज की कूट रचना कर दी गई। इस प्रकार फर्जीवाड़ा करने वालों ने शक होने की सभी संभावना को समाप्त करने का प्रयास किया था।

राजस्व से जुड़े कर्मियों और अधिवक्ताओं का कहना है कि जिले के जो दस्तावेज तहसील और कलेक्ट्रेट के अभिलेखागार में हैं उसमें सैकड़ों ग्रामसभाओं की हजारों जमीनों के दस्तावेज 1374 फसली के पहले के या तो गायब हो गए हैं या फिर फाड़ दिए गए हैं। इस कारण लोगों ने जो फर्जीवाड़ा उसके पहले के दस्तावेजों में किया गया है जिसके मूल ही सही सलामत नहीं हैं। प्रभारी जिलाधिकारी व नगर आयुक्त गौरांग राठी द्वारा उपलब्ध कराए गए दस्तावेज स्पष्ट रूप से बता रहे हैं कि मणिकर्णिकाघाट की जिस जमीन में जो फर्जीवाड़ा किया गया उसकी शुरुआत सन 1914 से हुई। साथ ही सारे फर्जीवाड़े के कार्य अंग्रेजों के 15 अगस्त 1947 में देश छोडऩे के ठीक एक वर्ष पहले 14 अगस्त 1946 को ही पूरे कर लिए गए। 22 मई 1914 को रघुनाथ सिंह पुत्र बाबू विश्वनाथ सिंह के पक्ष में नजूल गाटा संख्या 6600 व 8378 की भूमि आवासीय प्रयोजन के लिए लीज डीड तैयार की गई। इसी जमीन की 27 जून 1946 को दाखिल खारिज के लिए दो प्रविष्टियां की गईं। बाद में 14 अगस्त 1946 को जिलाधिकारी के हस्ताक्षर की ओवरराइटिंग कर अंतिम आदेश जारी कर दिया गया। ये सभी तिथियां अंग्रेजों के जमाने की हैं। सभी को खोजने और मिलान आदि करने में राजस्व टीम के पसीने छूट गए।

फर्जीवाड़े में भूल गए नियमों को

नजूल अधिकारी के आदेश से स्पष्ट है कि फर्जीवाड़ा करने वाले नियम-कानून ही भूल गए। जो कुछ किया उस संबंध में न ही ऐसी कोई पत्रावली लगाई जो प्रविष्टियों के सत्यता को स्थापित करती हों। साथ ही वरासत के आधार पर दाखिल-खारिज किया जाना विधि विरुद्ध है क्योंकि नजूल सम्पत्ति गवर्नमेंट ग्रांट एक्ट 1895 से प्रबंधित होती थी। नजूल सम्पत्तियों पर सम्पत्ति अंतर अधिनियम 1882 के प्रावधान लागू नहीं होते हैं।

1374 के पूर्व हो चुके हैं कई फर्जीवाड़े

इस शहर में कई फर्जीवाड़े प्रकाश में आए जो 1374 फसली के पूर्व के दस्तावेजों में किए गए। इसमें से डालमियां हाउस, बौद्ध धर्म गुरु दलाईलामा के नाम की भूमि प्रमुख रूप से हैं।

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