आलोक मेहता
वरिष्ठ पत्रकार

सत्ता, संपन्नता, शिखर-सफलता से अधिक महत्त्वपूर्ण है- संघर्ष की क्षमता और जीवन मूल्यों की दृढ़ता। इसलिए नरेंद्र भाई मोदी के प्रधानमंत्री पद और राजनीतिक सफलताओं के विश्लेषण से अधिक महत्ता उनकी संघर्ष यात्रा और हर पड़ाव पर विजय की चर्चा करना मुझे श्रेयस्कर लगता है। राजधानी में संभवत: ऐसे बहुत कम पत्रकार होंगे, जो 1972 से 1976 के दौरान गुजरात में संवाददाता के रूप में रह कर आए हों। इसलिए मैं वहीं से बात शुरू करना चाहता हूं। हिंदुस्तान समाचार के संवाददाता के रूप में मुझे 1973-76 के दौरान कांग्रेस के एक अधिवेशन, फिर चिमन भाई पटेल के विरुद्ध हुए गुजरात छात्र आंदोलन और 1975 में इमरजंसी रहते हुए लगभग आठ महीने अमदाबाद में पूर्णकालिक रह कर काम करने का अवसर मिला था। इमरजंसी के दौरान नरेंद्र मोदी भूमिगत रूप से संघ-जनसंघ और विरोधी नेताओं के बीच संपर्क और सरकार के दमन संबंधी समाचार-विचार की सामग्री गोपनीय रूप से पहुंचाने का काम कर रहे थे। उन दिनों तो उनसे भेंट नहीं हो सकी। लेकिन संयोग से नरेंद्र भाई के अनुज पंकज मोदी भी हिंदुस्तान समाचार कार्यालय में काम कर रहे थे। पंकज भाई और ब्यूरो प्रमुख भूपत पारिख से इस परिवार और नरेंद्र भाई के संघ तथा समाज सेवा के प्रति गहरी निष्ठा और लेखन क्षमता की जानकारियां मिलीं।

प्रारंभिक दौर में वहां इमरजंसी का दबाव अधिक नहीं दिख रहा था। गुजरात समाचार और संदेश जैसे अखबार ‘सेंसर’ की छाया में निकल रहे थे। यहां तक कि संघ से जुड़ी ‘साधना’ पत्रिका भी छप रही थी। एजेंसी से वैसे भी कोई सरकार विरोधी खबरें नहीं जाती थीं। इसलिए प्रतिदिन सरकार द्वारा निर्धारित समय पर अमदाबाद से जाने-आने वाली मिनी बस से गांधीनगर की यात्रा के दौरान और फिर पत्रकार-कक्षों और दफ्तरों में गुजरात की राजनीति, इमरजंसी, सेंसर, भूमिगत नेताओं की पुष्ट-अपुष्ट सूचनाएं मिलती रहीं। उन्हीं दिनों ‘साधना’ के संपादक विष्णु पंड्याजी से भी उनके दफ्तर में जाकर राजनीति तथा साहित्य पर चर्चा के अवसर मिले। बाद में विष्णु पंड्या के अलावा नरेंद्र मोदी ने इमरजंसी पर गुजराती में पुस्तक भी लिखी। इसलिए यह कहने का अधिकारी हूं कि सुरक्षित जेल की अपेक्षा गुपचुप वेशभूषा बदल कर इमरजंसी और सरकार के विरुद्ध संघर्ष की गतिविधियां चलाने में नरेंद्र मोदी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

गिरफ्तारी से पहले सोशलिस्ट जार्ज फर्नांडीज भी भेस बदल कर गुजरात पहुंच थे और नरेंद्र भाई से सहायता ली थी। मूलत: कांग्रेसी, लेकिन इमरजंसी विरोधी रवींद्र वर्मा जैसे अन्य दलों के नेता भी उनके संपर्क से काम कर रहे थे। संघर्ष के इस दौर ने संभवत: नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय राजनीति की कंटीली-पथरीली सीढ़ियों पर आगे बढ़ना सिखा दिया। लक्ष्य भले ही सत्ता न रहा हो, लेकिन कठिन से कठिन स्थितियों में समाज और राष्ट्र के लिए निरंतर कार्य करने का संकल्प उनके जीवन में देखने को मिलता है।

इस संकल्प का सबसे बड़ा प्रमाण हाल में जम्मू-कश्मीर के लिए बनी अस्थायी व्यवस्था की धारा 370 की दीवार को सरकार और संसद के फैसले से ध्वस्त कर लोकतांत्रिक इतिहास का नया अध्याय नरेंद्र मोदी और उनके निकटस्थ साथी अमित शाह ने लिख दिया। सामान्यत: लोगों को गलतफहमी है कि मोदी को यह विचार तात्कालिक राजनीतिक-आर्थिक स्थितियों के कारण आया। वे 1995-96 से भारतीय जनता पार्टी के महासचिव के रूप में हरियाणा, पंजाब, हिमाचल के साथ जम्मू-कश्मीर में संगठन को सक्रिय करने के लिए पूरे सामर्थ्य के साथ जुट गए थे। चर्चा के दौरान भी जम्मू-कश्मीर अधिक केंद्रित होता था, क्योंकि भाजपा को वहां राजनीतिक जमीन तैयार करनी थी।

संघ में रहते हुए भी वे जम्मू-कश्मीर की यात्राएं करते रहे थे। लेकिन नब्बे के दशक में आतंकवाद चरम पर था। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा के दौरान कश्मीर के छत्तीसिंगपुरा में आतंकवादियों ने छत्तीस सिखों की नृशंस हत्या कर दी थी। प्रदेश प्रभारी के नाते मोदी तत्काल कश्मीर रवाना हो गए। बिना किसी सुरक्षाकर्मी या पुलिस सहायता के वे सड़क मार्ग से प्रभावित क्षेत्र में पहुंच गए। तब फारूक अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। जब पता लगा तो उन्होंने फोन कर जानना चाहा कि ‘आप वहां कैसे पहुंच गए।

आतंकवादियों द्वारा यहां-वहां रास्तों में भी बारूद बिछाए जाने की सूचना है। आपके खतरा मोल लेने से मैं स्वयं मुश्किल में पड़ जाऊंगा।’ यही नहीं, उन्होंने पार्टी प्रमुख लालकृष्ण आडवाणी से शिकायत की कि आपका यह सहयोगी बिना बताए सुरक्षा के बिना घूम रहा है। तब आडवाणीजी ने भी मोदी को फोन किया, लेकिन मोदी ने कहा कि मृतकों के अंतिम संस्कार के बाद ही वापस आऊंगा। असल में सबको उनका जवाब होता था कि अपना कर्तव्य पालन करने के लिए मुझे जीवन-मृत्यु की परवाह नहीं होती।

जम्मू-कश्मीर के दुर्गम इलाकों और गांवों में यात्राओं के कारण वे जम्मू-कश्मीर की समस्याओं को समझते हुए उसे भारत के सुखी-संपन्न प्रदेशों की तरह विकसित करने का संकल्प संजोए हुए थे। लेह-लद्दाख में जहां लोग ऑक्सीजन की कमी से विचलित हो जाते हैं, नरेंद्र मोदी को कोई समस्या नहीं होती। तिब्बत, मानसरोवर और कैलाश पर्वत की यात्रा भी वे 2001 से पहले कर आए थे। तभी उन्होंने यह सपना भी देखा था कि कभी लेह के रास्ते हजारों भारतीय कैलाश मानसरोवर जा सकेंगे। उम्मीद की जाए कि लद्दाख और कश्मीर आने वाले वर्षों में स्विजरलैंड से अधिक सुगम, आकर्षक और सुविधा संपन्न हो जाएगा।
हिमालय की तरह नर्मदा भी उनके दिल से जुड़ी है। उज्जैन, इंदौर, ओंकारेश्वर की पृष्ठभूमि के कारण मैं 1973-74 से नर्मदा के पानी बंटवारे, राजनीतिक विवाद तथा इसके पौराणिक महत्त्व के साथ ही आधुनिक प्रगति में नर्मदा की जल-शक्ति के उपयोग पर लिखता रहा हूं। इसलिए मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी से नर्मदा पर बातचीत के अवसर मिले। दो साल पहले शुभि पब्लिकेशंस के संजय आर्य ने चर्चा के दौरान माना कि राजनीतिक विवादों से हट कर नर्मदा के महत्त्व पर अंग्रेजी में कोई पुस्तक नहीं है। मैंने लिखना स्वीकार किया। इस पर भव्य चित्रों के साथ काफी टेबल बुक बनने की तैयारी हुई। मैंने नरेंद्र मोदी को पुस्तक के लिए लिखने का संदेश भेजा। फिर पांडुलिपि भिजवाई, तो उन्होंने व्यस्तताओं के बावजूद एक सुंदर लिखित टिप्पणी भेज दी। पुस्तक छपने के बाद प्रकाशक के साथ उनसे भेंट हुई तो नर्मदा-हिमालय पर बातों में वे तत्लीन हो गए।

बहरहाल, असली खुशी हम दोनों के लिए यह रही कि विवादों से हट कर पचास वर्षों से लटका नर्मदा सरदार सरोवर बांध का निर्माण पूरा होने के बाद लाखों किसानों को खेती और गांवों को पीने का पानी भी पहुंच रहा है। इंदौर को नर्मदा का पानी पाने के लिए बड़ा आंदोलन करना पड़ा था। उज्जैन को भी हाल के वर्षों में नर्मदा का पानी मिलने लगा।

नरेंद्र मोदी भारत के ही नहीं, विश्व के चुनिंदा नेताओं में अग्रणी समझे जाने लगे हैं। मुझे लगता है कि उन्हें अंतरिक्ष, मंगल, चंद्रयान की सफलताओं से अधिक गांवों को पानी, बिजली, बेटियों को शिक्षा, गरीब परिवारों के लिए मकान, शौचालय और घरेलू गैस उपलब्ध कराने के अभियानों से अधिक संतोष मिलता है। इसलिए मैं इस धारणा से सहमत नहीं हूं कि गुजरात में हुए औद्योगिक विकास और संपन्नता को ध्यान में रख कर पहले उन्होंने उद्योगपतियों को महत्त्व दिया और ‘सूट-बूट की सरकार’ के आरोप लगने पर एजेंडा बदल कर गांवों की ओर ध्यान दिया।

फिर गरीबों की चिंता क्या किसी राजनीतिक दल और विचारधारा तक सीमित रहती है? यूरोप या अमेरिका में 1990 से पहले भी अश्वेतों और हिस्पेनिक समुदाय की कई बस्तियों और लोगों की हालत बेहद खराब थी। लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में भी धीरे-धीरे स्थिति बदली और वर्षों बाद बराक ओबामा वहां राष्ट्रपति तक बने। अश्वेतों में नया विश्वास पैदा हुआ। इसमें कोई शक नहीं कि नरेंद्र मोदी के विचार दर्शन का आधार ज्ञान शक्ति, जल शक्ति, ऊर्जा शक्ति, जन शक्ति और रक्षा शक्ति है।

मुख्यमंत्री बनने से पहले भी उन्हें अमेरिका सहित कुछ देशों की यात्रा के अवसर मिले थे। इसलिए भारत की ग्राम पंचायतों से लेकर दूर देशों में बैठे प्रवासी भारतीयों को अपने कार्यक्रमों, योजनाओं से जोड़ने में उन्हें सुविधा रहती है। योग, स्वच्छ भारत, प्लास्टिक मुक्ति, स्वस्थ भारत जैसे अभियान सही अर्थों में भारत को शक्तिशाली और संपन्न बना सकते हैं। आतंकवाद से निपटने का रचनात्मक रास्ता भी सामाजिक-आर्थिक विकास है। इसलिए राजनीति, विवाद, चुनौतियों से हट कर जननेता के रूप में नरेंद्र मोदी के दृढ़ संकल्पों और सपनों के लिए शुभ कामनाएं दी जानी चाहिए।

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