कानपुर : यूपीसीए की सत्ता फिर उनके हाथ में है जिनका पिछले कुछ सालों से लगातार विरोध हो रहा था। हालांकि ताजा परिस्थितियों को देखें तो इस जीत को बरकरार रखने के रास्ते में कुछ अड़चनों की आहट भी सुनाई पड़ रही है। पर छोड़िये इस बारे में अगली बार बात करेंगे। फिलहाल तो इस सफलता के यही मायने निकाले जा सकते हैं कि यूपी क्रिकेट की सत्ता के शहंशाह राजीव शुक्ला ही हैं।
पिछले एक साल में यूपी क्रिकेट के संचालन में कुछ सुधार जरूर हुआ। पर कुछ मामलों में यूपीसीए कोर्ट के झमेले में भी फंसा। चलिए इसके बावजूद राजीव शुक्ला की टीम को मिली एकतरफा जीत की वजह बताते हैं। कमजोर और बंटा हुआ विपक्ष सही पूछें तो राजनीति के सभी दांव पेंच के उस्ताद के सामने जो विपक्ष था उसकी उपस्थिति कभी महसूस ही नहीं हो सकी। यह गली नुक्कड़ों के उन पंचायत करने वाले लोगों के झुंड जैसा लगा जो टाइम पास के लिए सत्तापक्ष को पानी पी पी कर कोसता तो है लेकिन उसके पैरों के नीचे जमीन नहीं होती। यानि सिर्फ सोशल मीडिया में अपनी भड़ास निकालने वाला बेहद कमजोर विपक्ष। कुछ लोग तो सोशल मीडिया पर अमर्यांदित टिप्पणी करने में सभी सीमाओं को लांघते दिखे। ऐसे विरोधियों को यह जान लेना चाहिए कि ऐसी टिप्पणियों से आपकी लड़ाई में कोई भी सुसंस्कारित व्यक्ति साथ नहीं देने वाला।
हाल ही में जब व्हाट्स एप पर कुछ ऐसे ही मुंगेरी लालों ने पूर्व क्रिकेटरों का एक ग्रुप बनाया तो लगा कि इस बार एजीएम में कुछ धमाल मचेगा। ग्रुप में सभी को बड़े -बड़े सपने दिखा डाले गए। प्लेयर एसोसिएशन के लिए एक ऑफिस यहां खोलेंगे एक दफ्तर वहां खोलेंगे, ये करेंगे, वह करेंगे, फलाना ढिकाना आदि-आदि। उस ग्रुप में जान बूझकर कुछ ‘हरी राम नाई’ भी रखे गए ताकि यूपी क्रिकेट के अब्बा तक इनका आक्रोश पहुंच सके। लेकिन इस कवायद से इनको हासिल कुछ भी न हुआ। अक्सर आपस में वैचारिक मतभेद उभर आते। नाराज मेम्बर्स ग्रुप लेफ्ट कर जाते और फिर मनाकर वापस लाए जाते।
राजनीति के मंझे खिलाड़ी और किंग मेकर को यह भांपते देर न लगी कि उनके विरोध में गहराई कितनी है, इसलिए वे अपनी जीत को लेकर आश्वस्त रहे। वे सही भी साबित हुए, जब कुछ करने का मौका आया तो पूरे ग्रुप में सन्नाटा था। चर्चा करने वाले तो यहां तक कह गए कि यह ग्रुप ब्लैकमेल कर एक दो लोगों को यूपीसीए में जगह दिलाने के लिए ही बनाया गया। अब ऐसे मुरारियों को कहां हीरो बनना था। इस विपक्ष के लिए किसी की लिखी ये चार लाइनें ही काफी हैं- ‘मुझसे न पूछा कर… मेरे होने का सबब… मैं खुद से ज़्यादा… तेरे होने का सबूत हूँ ॥…’
सत्ता पक्ष की ताकत कानपुर के दर्शनपुरवा में बचपन गुजारने वाले राजीव शुक्ला शायद पतंगबाजी के दौर में ढील देकर पेंच लड़ाने के शौकीन रहे होंगे। उनकी विनम्रता की ढील से महीन तरीके से विपक्षियों की पतंग कन्ने से उड़ते देखने का भी अलग ही मजा है। आलोचकों को सामने से पुचकारना और सही वक्त पर उनको बर्फ पर लगा देने में इनका कोई सानी नहीं। उनकी विनम्रता विरोधियों के मुंह पर भी ताले लगा देती है। लाख विरोध के बावजूद कोई कार्रवाई न करके अपने आलोचकों के दिल में साॅफ्ट कार्नर भी बना लेने का हुनर है राजीव में। यूपीसीए के दिग्गज मरहूम ज्योति बाजपेयी को शिकस्त देना इतना आसान नहीं था लेकिन अपने इसी हुनर से उन्होंने इसे संभव कर दिखाया था। सबको साथ (अपवाद छोड़कर) लेकर चलने की सोच, किसी को नाराज न करने की खासियत इनका कारवां बड़ा करवाती है।
राजनीति का प्रबंधन हो या क्रिकेट का, पर्दे के पीछे रहकर भी शतरंज के मंझे खिलाड़ी की तरह मोहरे मूव करते हैं। इनमें कमियां भी कम नहीं किसी को नाराज न करने की आदत से दागियों को भी संघ में बनाए रखने से आलोचना भी खूब झेलते हैं। ऑफिस स्टाफ हो या कमेटियां, लोगों के चयन में सही और गलत की शिनाख्त न कर पाना भी कमजोर प्रबंधन की वजह बना हुआ है। काबिल लोगों को न बढ़ाने और गलत लोगों को भी साथ रखकर क्रिकेट का नुक्सान भी करवा देते हैं। कहा गया है कि निंदक नियरे राखिये लेकिन ये चापलूसों और चमचों को पास रखते हैं। यहां तक कि किसी खेल पत्रकार ने भी सच लिखने की हिम्मत दिखाई तो रसूख के दम पर उसकी कलम भी रुकवा देते हैं। ऐसे में गलती करने वाले बेलगाम हो जाते हैं। यह टीम लोकप्रिय भी बन सकती थी। लेकिन यह तब संभव है जब सही सलाहकारों से रायशुमारी मिले। आज विपक्ष भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार की दबी जुबान तारीफ क्यों कर रहा है, क्योंकि कैसी भी बीमारी की सर्जरी के वक्त उनके हाथ नहीं कांपते। कुछ सख्त फैसलों की जरूरत यूपीसीए में भी है बस कलेजा चाहिए।
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