अनिता यादव

एक वक्त था जब विद्यालय में प्राथमिक स्तर पर कक्षाओं में दिवाली विषय पर एक कविता पढ़ाई जाती थी- ‘दीप जलाओ दीप जलाओ, आज दिवाली रे…’। इस कविता में बच्चे की सदिच्छा है कि दिवाली के शुभ अवसर को खेल-खिलौना, दीप जलाने, नाचने-गाने, पटाखे चलाने, साफ-सफाई, नए कपड़े पहनने और पूजा करके मनाया जाए! हमने भी पाठ्यक्रम के तहत यह कविता पढ़ी और इसमें जिन कार्यों का वर्णन है, वे सब किए भी। दिवाली से महीने भर पहले ही घर भर में सफाई किसी अभियान की तरह शुरू हो जाती थी। जिन स्थानों को रोजमर्रा की सफाई में साफ नहीं करते, वे सफाई का मुख्य केंद्र बिंदु होते। दिवाली से हफ्तों पहले ही मां घर में तैयार घी, दूध से मिठाई बनाना शुरू कर देती। ये मिठाइयां बाद में भी खाई जाती रहती थीं।

आज वक्तपूरी तरह बदल चुका है। आज दिवाली मनाई नहीं, बल्कि ‘सेलिब्रेट’ की जाती हैं। ग्लोबल हो चुके हमारे त्योहारों का स्वरूप एकदम परिवर्तित हो चुका है। अब हमारे पास पैसा तो है, पर वक्त नहीं। महानगरों को छोड़ भी दें तो गांव तक में घर पर मिठाई बनाने की परंपरा लुप्तप्राय हो चुकी। शहर से बनी-बनाई मिठाइयां मंगा ली जाती हैं। यानी हर त्योहार बाजार भरोसे रख छोड़ा है। यह बाजार अपनी ऊपरी चमक-दमक से न केवल हमारी जेब पर डाका डालता है, बल्कि मिठाइयों के नाम पर जहर भी परोस रहा है। मिठाई बांटने के रूप में यह जहर हम हंसी-खुशी एक-दूसरे के घर पहुंचा भी रहे हैं। समाज के एक वर्ग विशेष में भले ही मिठाई की जगह ड्राई फ्रूट्स यानी सूखे फलों ने ले ली है, लेकिन मध्य वर्ग, निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग में अभी यह चलन अपने विकटतम रूप में विद्यमान है।

आज के ज्यादातर त्योहार वास्तव में मिलावटखोरों की पौ-बारह करने वाले ही सिद्ध होते हैं। सामान्य दिनों की अपेक्षा दूध और मावे की मिलावट इन दिनों चरम पर होती है। विभिन्न शहरों में प्रशासन की ओर से हर वर्ष नकली घी, दूध और मावा भारी मात्रा में पकड़ा जाता है। इसके बावजूद कोई बड़ी कार्रवाई या दंड विधान के अभाव में यह निरंतर चलता रहता है। त्योहारों पर दूध, घी सरीखे खाद्य पदार्थों की खपत बढ़ने से इनकी कमी हो जाती है, जिसे पूरा करने के लिए मिलावट का सहारा लिया जाता है। इन दिनों डेयरियों में नकली दूध, घी बनाने का कारोबार अपने चरम पर होता है। स्वास्थ्य के साथ समझौता भले करना पड़े, लेकिन मुनाफे से कोई समझौता न करना व्यक्ति की बाजार आधारित विशेषता है।

बचपन में हम जिन पटाखों से अपनी खुशी जाहिर करते थे, वे छोटे-छोटे टिक्की पटाखे होते थे जो न ज्यादा शोर करते थे, न प्रदूषण। आज पटाखों का भरा-पूरा बाजार है। इनकी ऐसी ऐसी किस्में हैं जो पटाखा नहीं, बम का आभास देते है। बड़े और भारी बमनुमा पटाखे और उन्हें देर रात तक फोड़ने की कुव्वत लोगों की सामाजिक हैसियत को आंकने का मापदंड हो चुकी है। पर्यावरण को देखते हुए सरकार द्वारा पटाखे चलाने की समय-सीमा निश्चित करने के बावजूद लोग बाज नहीं आते। नतीजतन, अगली सुबह गली-चौराहों पर पटाखों से उत्पन्न कूड़े को देख लगता है कि हम घूरे पर बैठे हैं। दिवाली पर चलाए पटाखों से निकले धुएं की परत आसमान में इस कदर छा जाती है कि कई बार सूरज भी छिप गया लगता है। पटाखों से उत्सर्जित यह प्रदूषण मनुष्य से लेकर जानवरों तक के लिए खतरनाक होता है। देश की राजधानी की हालत हर साल बद से बदतर होती जा रही है। स्थिति से पार पाने के लिए प्रशासन भले ही परिवहन संबंधी ‘सम-विषम’ सरीखे नियम लागू कर दे, कृत्रिम बारिश की सोचे, लेकिन ये सब नाकाफी साबित होते हैं।

इन दिनों सुबह चार बजे की हवा भी जहरीली रहती है। प्रशासन की ओर से बहुत जरूरी न होने पर घर से बाहर न निकलने के चेतावनी जारी किया जाना बताता है कि स्थिति बेहद खतरनाक है। क्या आज समय की जरूरत नहीं कि त्योहारों के मनाने के तरीकों में फिर बदलाव हो? बदलाव को सकारात्मक रूप में लेने की जरूरत समय की पुकार है, न कि हम इसे अपनी सांस्कृतिक स्वतंत्रता और मूल्यों पर हमला करार दें। मानव जाति बचेगी, तभी मूल्यों के बचने की चिंता कर पाएगी!

बचपन में नए-नए कपड़े पहन कर जो खुशी दिवाली के दिन हर बच्चे के चेहरे पर दिखती थी, उस खुशी से आज का बच्चा महरूम है। वह ऐसा समय था, जब त्योहार पर ही नए कपड़े सिलवाए जाते थे या किसी शादी-ब्याह में। आज नए कपड़े खरीदने के लिए हम त्योहार या विवाह आदि के मोहताज नहीं। अब अक्सर नए ब्रांड के कपड़े खरीदते और पहनते हैं। क्या अब वक्तनहीं आ गया कि हमें अपनी जीवनशैली में बदलाव करना चाहिए? त्योहार हमें मानसिक खुशी देने और शारीरिक स्वास्थ्य को बेहतर करने के लिए होने चाहिए, न कि बीमार करने के लिए। हमारा कर्तव्य है कि हम मानव जाति की खुशी और स्वास्थ्य के लिए पर्यावरण को बचाएं, ताकि आने वाली पीढ़ी को ही नहीं, वर्तमान पीढ़ी को भी सुकून मिल सके। थोड़ी जमीन बचाएं, थोड़ा आसमान!

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