पदमपति शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
आज यानी एक सितम्बर से देश भर में नया मोटर वाहन अधिनियम लागू हो गया। संसद में पारित इस कानून के तहत ट्रैफिक यानी यातायात नियम तोड़ने पर अब पहले की तुलना मे दस गुना जुर्माना भरने के अलावा जेल की भी हवा खाने का प्रावधान किया गया है।
जुर्माने की रकम इतनी बढ़ा दी गयी है कि चौराहों पर तैनात पुलिस की पौ बारह हो गयी हैं। क्योंकि नये कानूनों के पालन का दायित्व तो उसका है, केन्द्रीय परिवहन मंत्री गडगरी जी का नहीं। कहने को तो सीसीटीवी कैमरे लगे हैं। मगर उगाही मुखबिर के माध्यम से होने पर कौन रोक सकता है।
जब तक केन्द्र सरकार पुलिस पुनर्सुधार की संस्तुतियो की धूल खा रही फाइल को झाड़ पोछ कर उसको लागू नहीं करती, मोदी जी का गुड गवर्नेन्स का सपना साकार होना असंभव है। आज की वस्तुस्थिति यह कि पुलिस, जो पहले पचास रुपये में ट्रैफिक तोड़ने वालों को जाने देती थी, एक सितम्बर से अब उसका रेट बढ कर पाँच सौ हो गया। कहने का तात्पर्य यह कि नये कानून से फिलहाल तो सरकार की नहीं अनुपालन कराने वालों की झोली भरेगी।
आप काशी का ही उदाहरण लीजिये। पिछले दिनों ट्रैफिक पखवाड़े के दौरान क्या हुआ था ? ईचालान बढ़ गए मगर क्या वाहन चलाने वाले अनुशासित हुए ? मुख्यमंत्री योगी जी की हुन्कार कि ट्रैफिक पुलिस बिना हेलमेट धारण किये वाहन चलाने वालों को पकड़े , पैट्रोल पम्प ऐसे वाहन चालक को पेट्रोल देने से इनकार कर दें, क्या कानून का अनुपालन कराने वालों ने सुनी ? क्या जिन्दगी बचाने वाला हेलमेट धारण करने वालों की संख्या में आशातीत बृद्धि हुई ? क्या दोपहिया वाहन पर दो से ज्यादा सवारी पर अंकुश लगा? क्या कार मे सीट बेल्ट लगाने की अनिवार्यता लोगों ने अपना ली और क्या बिना लाइसेंस वाहन चलाना बंद हो गया ? क्या सड़क किनारे वाहनों का अतिक्रमण बंद हो गया और क्या इसके चलते लगने वाला जाम समाप्त हो गया ? क्या आटो और इलेक्ट्रिक रिक्शा चालकों से पुलिस की उगाही बंद हो गयी ?
सभी का एक ही जवाब है कि कहीं कुछ भी बदलाव उस पखवाड़े में देखने को नहीं मिला ? तब हम कैसे मान लें कि ये नये नियमों के अनुपालन सख्ती से लागू होंगे ?
ठीक है कि पुलिस की अपनी भी समस्याएँ हैं। उनकी संख्या बल में कमी भी एक प्रमुख कारण है। प्रदेश सरकारों को रिक्त स्थान भरने के लिए तत्काल कदम उठाने होंगे। लेकिन जब तक नयी नियुक्तिया नहीं होतीं तब तक अस्थायी तौर पर ही सही क्या चौराहों के लिए एनसीसी के कैडट मददगार नहीं हो सकते ? क्या स्वयंसेवी संस्थाओं की इस काम में मदद नहीं ली जा सकती ? सच तो यह कि जरूरत दृढ़ इच्छा शक्ति और ईमानदारी की है। जिसका कि पुलिस प्रशासन में नितान्त अभाव है। शाम को सिपाही की जेब टटोलने वाली पत्नी की जब तक इच्छापूर्ति होती रहेगी, कुछ भी बदलने वाला नहीं है ?
बात यूरोप या अमेरिका की नहीं पड़ोसी देश नेपाल की राजधानी काठमांडू की करते हैं। देखिये कि वहां किस सख्ती से यातायात नियम लागू हैं। शराब पीकर वाहन चलाने वालों की खैर नहीं। पहली बार पकड़े जाने पर दो हजार जुर्माना और तीसरी बार में दस हजार और आजीवन लाइसेन्स रद। यातायात नियम तोड़ने वालों पर ही नहीं पैदल चलने वालों पर भी सड़क पार करने वाली रेखा के अलावा यह जुर्रत करने पर अर्थदण्ड है। भुगतान का भी नियम कम कठोर नहीं है। पैसे सिर्फ एक बैंक विशेष में ही जमा होते हैं, जहां इतनी लम्बी कतार लगती है कि आपको लंच बाक्स साथ ले जाना पड़ेगा।
हाँ, वहां ले देकर मामला इसलिए सल्टाया नहीं जा सकता कि जुर्माना की 40% राशि सीधे चालान काटने वाले के खाते में पहुँच जाती है। क्या भारत सरकार भ्रष्ट्राचार रोकने के लिए कुछ इस तरह का प्रावधान नहीं कर सकती ?
बहरहाल देखने वाली बात तो यह होगी कि नये ट्रैफिक कानून कितना अमल में आते हैं और आम जन इससे कितना अनुशासित होता है ?