मृतात्मा के साथ न्याय हो
वाराणसी । झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ( मनु- मणिकर्णिका) की जन्म स्थली के परीक्षण हेतु हमने सबसे पहले विचार बनाया नगर निगम को खंगालने का, तो 05-09-2017 को एक पत्र नगर गिगम को भेजा जिसका जवाज नही मिलने पर 18-10-2017 को पुनः पत्र प्रेषित करके भवन संख्या बी 01/190 तथा बी 1/191 के संबंध मे दस्तावेजी साक्ष्य की अषेक्ष की गई। दिनांक 06-12-2017 को सहायक जनसूचना अधिकारी का उत्तर प्राप्त हुआ। इसके साथ दो पृष्ठीय आख्या शामिल थी जिससे स्पष्ट है कि रानी झाँसी लक्ष्मी के जन्मस्थान के सम्बन्ध मे कोई उल्लेख नही किया गया है। साथ ही संलग्न रिकार्ड कीपर की आख्या दिनांक 28-11-2017 अवलोकनीय है जिसमें वर्ष 1922 से 1976 तक के रिकार्ड मे महारानी लक्ष्मीबाई जन्मस्थली का कोई उल्लेख नही है। साथ ही यह भी तथ्य समक्ष उपस्थित हो गया कि बी 1/190 से सम्बन्धित असेस्मेंट रजिस्टर का पन्ना फटा है।
समूचा उत्तर अपनी कमियों, खामियों और ज्यादतियों को छिपाने के साथ स्वअपराधबोध से भी ग्रसित है। इसमे झूठ भी है, यथार्थ भी है। नगर आयुक्त द्वारा दिनांक 13-05-2009 को क्षेत्रीय पर्यटन अधिकारी को पत्र प्रेषित कर अनुरोध किया गया कि साक्ष्यों के आधार पर पं वीरभद्र मिश्र अथवा पर्यटन विभाग द्वारा नाम निरस्तिकरण हेतु आवेदन किया जाए. कर निरीक्षक की आख्या 16-12-2009 के अनुसार आराजी नं 3111, रकबा 3811 फीट के संबंध में संलग्न खतौनी जो कथित रूप से महन्त संकटमोचन प्रो. वीरभद्र मिश्र की सम्पत्ति है , को मात्र दस रूपये के नोटरी स्टाम्प पर सहमति/उद्घोषणा के आधार पत्र पर्यटक विभाग के पक्ष में नामान्तरित करने का विवरण कितना विधिक, न्यायसंगत एवं व्यावहारिक है। यह गंभीर प्रश्न है कि उक्त भूखंड-भवन का अधिग्रहण लक्ष्मीबाई जन्मस्थान के रूप में विकसित करने हेतु किया गया तो अहम प्श्न है कि वह स्थान लक्ष्मीबाई के जन्मस्थान के रूप में कैसे और क्यो प्रमाणित और स्वीकार किया गया। इसका कोई विवरण अथवा साक्ष्य पर्यटन विभाग के पास भी नही है।
महानिदेशक पर्यटन, उत्तर प्रदेश शासन को को प्रेषित पत्र दिनांक 31-03-2017 जो कि अनु सचिव, उत्तर प्रदेश शासन द्वारा निर्गत है। स्पष्ट प्रावधान है कि ” जिस भूमि पर निर्माण कार्य किया जाना है, संबंधित संस्था / विभाग के पास निर्विवाद रूप से उपलब्ध हो गई है, जबकि निर्माण से जुडी भूमि विवादित है और रही है और जिसका नामान्तरण भी संदिग्ध है।
जब IDPS के कार्य का प्रारंभ होने पर उक्त कथित जन्मस्थान स्मारक की बिजली काट दी गई, क्योकि वहाँ पर कनेक्शन नही था बाद में जबरिया लोगों ने बिजली जोडी जिसे फिर से काटा गया। चोरी से बिजली जलाई जा रही थी ,यह आरोप से स्वतः प्रमाणित है। इसकी जानकारी के लिये हमने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग , सारनाथ , वाराणसी तथा उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व विभाग से विवरण की अपेक्षा की. प्रतीक्षा के पश्चात क्षेत्रीय पुरातत्व अधिकारी ,गुरूधाम मंदिर परिसर , वाराणसी से उत्तर प्राप्त हुआ जिसमें स्पष्ट है कि ” मुहल्ला भदैनी स्थित भवन संख्या बी 1/190 तथा 1/191 स्थित रानी लक्ष्मीबाई जन्मस्थान व स्मारक उ.प्र. प्राचीन व ऐतिहासिक स्मारक तथा पुरातात्विक स्थलों एवं अवशेषो के परिरक्षण अधिनियम 1958 के तहत उ.प्र. राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित घोषित नही है।
आश्चर्य का विषय है कि शहीद स्मारक का निर्माण गंगादास आश्रम के बगल में स्वर्ण रेखा नदी ( नाला ) के किनारे सन 1920 में सिन्धिया वंशज जिवाजी राव ने कराया. मगर ग्वालियर किले की युद्ध की तारीखो के बजाय अंग्रेजो द्वारा लिखी गयी तारीख 18 जून को मान्य कर लिया गया।
शासन के प्रावधानो के विपरीत उक्त परिसर की वास्तविक स्थिति का आकलन काये बिना ही न जाने किस स्वार्थ ,भ्रम, कपट, षडयंत्र, दबाव अथवा जनदबाव मे विवादित भूखंड / भवन को रानी लक्ष्मीबाई की जन्मस्थली बनाने बताने की सुनियोजित योजना बनाई गई. रानी लक्ष्मीबाई की आड लेकर विभागो को भ्रमित किया गया।
पुरातात्विक धरोहर के रूप में किसी भी स्थान की मान्यता के अभाव के बाद भी उसे पुरातात्विक धरोहर मानते हुए निर्दिष्ट नियमो के सर्वथा विपरीत रानी लक्ष्मीबाई की विशाल प्रतिमा स्थापित करके उक्त स्थान को जन्मस्थली के रूप मे विकसित करते हुए उसका सुन्दरीकरण करके पर्यटन स्थल घोषित करने के साथ जन्मस्थान घोषित करने का दुस्साहस किया गया और रखरखाव की जिम्मेदारी नगर निगम को सौप दी गई। यदि नगर निगम उसका अनुसरण करता है तब भी अधिकारातीत होगा और काशी की जनता स्वयं घटनाक्रम पर मनन करे और शासन प्रशासन उक्त निर्मित परिसर को ” जन्मस्थान स्मारक ” के स्थान पर मात्र स्मारक शब्द का उपयोग करे। जनता को भ्रमित करने का अधिकार प्रशासन को नही है। यह अधिकारातीत और जनता के विरूद्ध षडयंत्र है।विस्तृत जाँच के बाद समस्त दोषियों को दंडित करते हुए मृतात्मा ( रानी लक्ष्मीबाई ) को न्याय प्रदान किया जाना चाहिये।
उपेन्द्र विनायक सहस्त्रबुद्धे की कलम से