भुट्टो की ‘आत्मा’ बदला लेगी…पाकिस्तान तेरे टुकड़े होंगे…इंशाअल्लाह…इंशाअल्लाह

प्रखर श्रीवास्तव, एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर, न्यूज 24:

ये एक पाकिस्तान के एक प्रधानमंत्री की कहानी है। वो प्रधानमंत्री जिसे उसके ही देश पाकिस्तान ने सुना दी सज़ा ए मौत। जिसे उसके ही लोगों ने फांसी के फंदे पर लटका दिया। वो प्रधानमंत्री चीख चीख कर कहता रहा की वो बेगुनाह है लेकिन उसके ही बनाए कानून ने कहा – मिस्टर प्राइम मिनिस्टर तुम कातिल हो… रहस्य, षड़यंत्र, दुश्मनी, धोखे और दर्द से भरी इस दास्तां के नायक हैं पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो। भुट्टो को 4 अप्रैल 1979 को एक कत्ल के इल्जाम में सज़ा ए मौत दी गई। लेकिन 40 साल बाद एक बार फिर ज़िंदा हो गया है भुट्टो का जिन्न। चार दशक पहले जिस फांसी कांड ने हिला दिया था सारी दुनिया को उसका असर अब फिर चालीस साल बाद दिख रहा है। जुल्फिकार अली भुट्टे के नवासे यानि नाती और पीपीपी के अध्यक्ष बिलावल भुट्टो ने कहा है कि एक दिन सिंध प्रांत पाकिस्तान से अलग होकर सिंधुदेश बन जाएगा। दरअसल पंजाबी परस्त पाकिस्तान से बिलावल का ये वो दर्द है जो उनके नाना जुल्फिकार ने झेला था। जिन्हे पाकिस्तान की पंजाबी ताकतों ने मिल कर फांसी के फंदे पर टांग दिया था।

एक कत्ल जिसने भुट्टो की फांसी का फंदा तैयार किया

वो साल था 1974… पाकिस्तान की सियासत अगर किसी के इर्द गिर्द घूमती थी तो वो थे वज़ीरे आज़म जुल्फिकार अली भुट्टो। ज़ुल्फी की बातों में ऐसा जोश ऐसा जादू था कि पूरा पाकिस्तान उनकी एक आवाज़ पर उठ खड़ा होता था। उस दौर में पूरे पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो की सत्ता को चुनौती देने की हिम्मत किसी में नहीं थी। लेकिन एक शख्स ऐसा था जो कभी भुट्टो का दोस्त था लेकिन सियासत ने उसे भुट्टो का दुश्मन बना दिया, उसका नाम था अहमद रज़ा कसूरी। जाने माने वकील कसूरी को हमेशा लगता था कि भुट्टो की कामयाबी के पीछे उनका हाथ है। इतने साल गुज़रने के बाद भी आज तक कसूरी यही मानते हैं भुट्टो उनके कंधे पर पैर रखकर आगे बढ़े। कसूरी और भुट्टो की ये सियासी दुश्मनी इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि कसूरी ने भुट्टो की पार्टी पीपीपी से बगावत कर अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। इसके बाद अहमद रज़ा कसूरी पर पूरे 9 हमले हुए। हर हमले के बाद कसूरी ने यही इल्ज़ाम लगाया कि इनके पीछे प्रधानमंत्री भुट्टो का हाथ है। लेकिन कसूरी पर होने वाला दसवां हमला, पाकिस्तान के पूरे इतिहास, पूरी सियासत औऱ एक प्रधानमंत्री की ज़िंदगी का रुख मोड़ देने वाला था।  

वो तारीख थी 10 नवंबर 1974… जगह थी लाहौर का शादमान इलाका… अहमद रज़ा कसूरी अपने पिता नवाब मुहम्मद खान के साथ जीप में जा रहे थे। तभी जीप पर कातिलों की टोली ने हमला बोल दिया, चारों तरफ से गोलियां चलने लगीं, ये भाड़े के हत्यारे अहमद रज़ा कसूरी को मौत के घाट उतारना चाहते थे लेकिन इत्तेफाक देखिए कि कसूरी तो बच गए लेकिन उनके पिता नवाब मुहम्मद खान की मौके पर ही मौत हो गई। अहमद रज़ा कसूरी ने इल्ज़ाम लगाया कि इस हमले के पीछे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो का हाथ है। अपने पिता के कत्ल के इल्ज़ाम में कसूरी ने अगले ही दिन भुट्टो के खिलाफ एफआईआर दर्ज़ करवा दी। लेकिन भुट्टो उस समय मुल्क के वजीर ए आज़म थे लिहाज़ा कत्ल की फाइल वहीं दब गई।

भगत सिंह की फांसी से भुट्टो की फांसी तक…

कसूरी के पिता के कत्ल से पूरा पाकिस्तान हिल गया क्योंकि कसूरी के पिता नवाब मुहम्मद खान ब्रिटिश हिंदुस्तान और पाकिस्तान में जाना पहचाना नाम थे। दरअसल नवाब मुहम्मद खान ही वो जज थे जिन्होने 1931 में शहीद भगत सिंह की सज़ा ए मौत के कागज़ात पर दस्तखत किए थे। अंग्रेज़ों के पिठ्ठू जज नवाब मुहम्मद खान की देखरेख में ही शहीद भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी की सज़ा दी गई थी। उपरवाले का इंसाफ देखिए की जिस जगह भगत सिंह को फांसी दी गई थी लाहौर के उसी इलाके शामदान में नवाब मुहम्मद खान को मौत के घाट उतार दिया गया। लेकिन कहते हैं ना इतिहास खुद को दोहराता है। फांसी और कत्ल का ये खूनी चक्र यहीं नहीं रुकने वाला था। क्रांतिकारी भगत सिंह को फांसी देने वाला जज नवाब मुहम्मद खान अब अपनी मौत के बाद एक प्रधानमंत्री की फांसी की वजह बनने वाला था।

पंजाबी जनरल और पंजाबी जज बने सिंधी भुट्टो का ‘काल’

5 जुलाई 1977… पाकिस्तान के इतिहास का सबसे काला दिन। जनरल ज़िया उल हक ने एक तख्तापलट के ज़रिए लोकतंत्र का गला घोंट दिया। जुल्फिकार अली भुट्टो सत्ता से बेदखल कर दिए गए थे और पाकिस्तान की कमान अब जनरल ज़िया के हाथ में थी। जनरल ज़िया जानते थे कि अगर उन्हे लंबे समय तक पाकिस्तान का तानाशाह बने रहना तो भुट्टो को रास्ते से हटाना ही होगा। भुट्टो और जनरल जिया के बीच दुश्मनी की एक और वजह थी, भुट्टो सिंधी थे और जिया पंजाबी। पाकिस्तान में हमेशा से पंजाबियों का दबदबा रहा है और उन्हे ये बिल्कुल बर्दाश्त नहीं था कि एक सिंधी उनपर हुकूमत करे। ऐसे में पंजाबियों को खुश करने के लिए भुट्टो को रास्ते से हटाना जिया के लिए ज़रूरी था और ऐसे में उन्हे याद आया नबाव मुहम्मद खान मर्डर केस। ज़िया ने कत्ल के उस केस की फाइल खुलवा दी। नवाब मुहम्मद खान के बेटे अहमद रज़ा कसूरी ने 1974 में भुट्टो के खिलाफ जो एफआईआर दर्ज़ करवाई थी उसी की बुनियाद पर भुट्टो को गिरफ्तार कर लिया गया। 11 अक्टूबर 1977 को लाहौर हाईकोर्ट में वजीर ए आज़म भुट्टो के खिलाफ मुकदमा शुरु हुआ। इस मुकदमे की सुनवाई कर रहे थे लाहौर हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस मौलवी मुश्ताक हुसैन। जस्टिस हुसैन और भुट्टो की पुरानी दुश्मनी थी। भुट्टो जब प्रधानमंत्री थे तो उन्होने हुसैन को पंजाब हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस नहीं बनने दिया था। लेकिन अब बारी जस्टिस हुसैन की थी। बदले की आग में जल रहे जस्टिस हुसैन भुट्टो को भरी अदालत में रोज़ ज़लील करते। समझदार भुट्टो के लिए इतना ही इशारा काफी था। तब जुल्फिकार ने अपनी बेटी बेनजीर भुट्टो से कहा था कि – “मुझे मालूम है कि ये मुझे मौत की सजा देंगे, जनरल जिया ने जस्टिस हुसैन को हाइकोर्ट में ये ड्यूटी दी है कि वो मुझे फांसी की सज़ा सुनाएं।”

दरअसल जस्टिस हुसैन कहने भर को जज थे हकीकत में वो जनरल ज़िया एक कठपुतली थे। जनरल ज़िया ने अदालत को साफ कह दिया था कि किसी भी कीमत पर भुट्टो को नहीं छोड़ना है। जनरल ज़िया जो चाहते थे जस्टिस हुसैन ने वही किया। 18 मार्च 1978 को लाहौर हाईकोर्ट ने भुट्टो को कत्ल के इल्ज़ाम में सजा ए मौत सुना दी। पंजाब प्रांत को छोड़ कर पूरा पाकिस्तान दुखी था, पूरी दुनिया सन्न थी लेकिन तानाशाह ज़िया इस फैसले से बेहद खुश थे। वो सारी दुनिया सफाई दे रहे थे कि ये अदालत का फैसला है और इसमें उनका कोई हाथ नहीं है। अब भुट्टो को कोई बचा सकता था तो वो था पाकिस्तान का सुप्रीम कोर्ट। लेकिन सारी दुनिया, पूरे आवाम के ज़ेहन में यही सवाल था कि क्या भुट्टो को सुप्रीम कोर्ट में इंसाफ मिलेगा या फिर लाहौर हाईकोर्ट की तरह ही सुप्रीम कोर्ट भी जनरल ज़िया के कदमों में झुक जाएगा।

पंजाबी जजों की चौकड़ी ने तैयार किया भुट्टो का फंदा


जुल्फिकार अली भुट्टो का भरोसा पाकिस्तान के कानून से उठ गया था। वो किसी भी हालत में सुप्रीम कोर्ट में अपील नहीं करना चाहते थे। लेकिन बेटी बेनज़ीर के समझाने पर भुट्टो ने 25 मार्च 1978 को सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर दी। भुट्टो सिंधी थे और जनरल ज़िया पंजाबी। सिंध और पंजाब की ये नफरत सुप्रीम कोर्ट में भी दिख रही थी। लाहौर हाईकोर्ट की तरह सुप्रीम कोर्ट में भी जनरल ज़िया ने अपना मोहरा बैठा दिया था और इस बार नए मोहरे का नाम था चीफ जस्टिस अनावर उल हक। जिन्हे अपनी पंजाबियत पर बड़ा गुरूर था। भुट्टो की फांसी पर अब 9 जजों की बैंच फैसला करने वाली थी लेकिन आखिरी समय में भुट्टो का समर्थन करने वाले दो गैर पंजाबी जजों को हटा दिए गया।
अब बेंच में 7 जज बचे थे जिसमें से चार पंजाबी थे और तीन गैर पंजाबी, इन्ही जजों में से एक थे जस्टिस दोराब पटेल भी एक थे। पारसी धर्म से ताल्लुक रखने वाले जस्टिस पटेल मरते दम तक ये मानते रहे कि भुट्टो बेकसूर थे। लेकिन चारों पंजाबी जज सिंधी भुट्टो को फांसी पर चढ़ाने के लिए तुल गए। 24 मार्च 1979 को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया। जनरल ज़िया ने जो तय किया था वही हुआ। 7 में से 4 पंजाबी जजों ने भुट्टो को कातिल माना और इसी के साथ लग गई भुट्टो की फांसी पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर। भुट्टो ने जिस पाकिस्तान को कानून दिया अब उसी पाकिस्तान के कानून ने अपने ही वज़ीर ए आज़म के गले में कस दिया फांसी का फंदा।

भुट्टो की वो आखिरी रात

जुल्फिकार अली भुट्टो रावलपिंडी जेल में बंद थे। वो जानते थे उन्हे अब किसी भी वक्त फांसी दी जा सकती है। 3 अप्रैल 1979 की दोपहर उनकी सबसे लाड़ली बेटी बेनज़ीर और उनकी पत्नी नुसरत भुट्टो उनसे मिलने आईं। दोनों को एक साथ देखकर भुट्टो को अहसास हो गया कि ये आखिरी मुलाकात है। बेनज़ीर ने अपनी किताब Daughter of east में इस मंज़र को कुछ यूं बयां किया – “पापा ने हम दोनों को एक साथ देखा और बोले क्या ये आखिरी मुलाकात है? अम्मीजान ने कहा – नहीं मुझे नहीं मालूम… तब मैं बोली हां ये आखिरी मुलाकात है, मुझे लगता है या आखिरी मुलाकात है, पापा ने जेलर को तलब किया उनसे पूछा और उसने आंख झुका दी… हम सब समझ गए कि पापा की ये आखिरी रात है।”
भुट्टो की ज़िंदगी के चंद घंटे बचे थे और वो इस चंद घंटे को पूरी तरह जी लेना चाहते थे। उनकी मरहूम बेटी बेनज़ीर को ताउम्र याद रहा कि कैसे उनके अब्बा ने हंसते हंसते मौत के इन लम्हों को जिया, उन्होने लिखा था कि – “पापा, सिगार पी रहे थे और उस सिगार की राख नीचे नहीं गिर रही थी, यानि मौत के मंजर को सामने देखकर भी उनके हाथ नहीं कांप रहे थे।” फिर आ गया काली रात का वो मनहूस पल जब भुट्टो को दी जाने वाली थी फांसी। जेल में भूख हड़ताल करने की वजह से भुट्टो कमज़ोर हो चुके थे। वो चल नहीं सकते थे, लिहाज़ा चार लोगों ने उन्हे उठाकर स्ट्रेचर पर लादा। रावलपिंडी जेल के फौजी इंचार्ज कर्नल रफीउद्दीन ने अपनी किताब “भुट्टो के आखिरी 323 दिन” में इस मंजर को कुछ यूं बयां किया हैं – “दो लोगों ने भुट्टो के हाथ पकड़े और दो लोगों ने उनकी टांग पकड़ी। लाचार भुट्टो का शरीर ज़मीन को छू रहा था और तभी उनकी शर्ट एक फौजी के बूट के नीचे आकर फट गई। फिर उन्हे हथकड़ी पहनाई गई, दो लोगों ने उन्हे सहारा देकर फांसी के तख्ते पर खड़ा किया। रात के 2 बजकर 40 मिनट पर जल्लाद तारा मसीह ने तख्ते का लीवर खींच दिया। थोड़ी देर में मैंने देखा भुट्टो का बेजान शरीर हवा में झूल रहा था।”
रात के अंधेरे में भुट्टो को फांसी दे दी गई। इसके बाद उनकी लाश को हेलीकाप्टर से उनके कस्बे लरकाना लाया गया। उनकी लाश को देखने वाले कई लोगों का आज भी दावा है कि भुट्टो को फांसी नहीं दी गई थी बल्कि उन्हे किसी दूसरे तरीके से मौत के घाट उतारा गया था। इन्ही में से एक हैं शमीम खान जिन्होने भुट्टो को कब्र में दफनाया था। बकौल शमीम खान उन्होने भुटटो के शरीर पर चोट के कई निशान देखे थे। खैर पाकिस्तान को जम्हूरियत का उजाला देने वाले जुल्फिकार अली भुट्टो को चुपचाप कब्र में दफ्न कर दिया गया और इसी के साथ दफ्न हो गए वो सारे राज़, वो सारे सवाल जो उस वक्त एक मुल्क की तकदीर बदल सकते थे। लेकिन आज फिर उठा है एक सवाल कि क्या अब भुट्टो की आत्मा पाकिस्तान से बदला लेगी?

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