ज्योति पर्व की पूर्व संध्या पर विशेष
दोष नफरत की उस घूंटी का था जो पाकिस्तान में पिलायी जाती है
पदम पति शर्मा
प्रधान संपादक
विश्व पटल पर भारतीय उत्थान की यशोगाथा का सबसे बड़ा प्रमाण आप हिंदुओं के तीज- त्यौहारों और पर्वों के वैश्विक आयोजनों को आंख मूंद कर मांनेगें. हालिया वर्षों में ब्रिट्रेन और अमेरिका सहित पश्चिमी राष्ट्रों में खास तौर से होली-दीवाली सरीखे पर्व जिस धूमधाम से मनाए जाने लगें हैं वे पूरी दुनिया में सुर्खियां बनते हैं. आपने पढा और देखा होगा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने अमेरिकी और भारतीयों के छोटे से समूह के साथ अपने दफ्तर मे दीपोत्सव पर्व को शिद्दत से मनाने के साथ कहा कि यह त्योहार हमारी धार्मिक स्वतंत्रता को प्रतिबिम्बित करता है। लेकिन हां, वे देश जो दूसरों से अपने लिए तो सहिष्णुता और सहनशीलता की उम्मीद रखते हैं परंतु बदले में देने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं होता. इसका कारण मजहबी कट्टरपन है या कुछ और, यह तो नहीं कह सकता. परंतु दावे के साथ यह कह सकता हूं कि अपने देश में सहिष्णुता की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उनको डिगा पाना नामुमकिन है.
इसका गर्वजनित अहसास तब कहीं ज्यादा होता है जब आप ऐसे ही मजहबी कट्टर मुल्क पड़ोसी पाकिस्तान में हों. वहां भारतीय पर्व- तीज-त्यौहार आदि जेहन में एक टीस, एक कसक के साथ याद आते हैं. जीवन में दो बार ऐसा हुआ जब ज्योति पर्व दिवाली क्रिकेट सीरीज के दौरान इस पड़ोसी मुल्क में पडी. पहली बार साबका पड़ा १९७८ में . खेल की गहमा-गहमी के दौरान कब सुबह और कब शाम होती, पता ही नहीं चलता. मैच रिपोर्ट टेलेक्स के माध्यम से अखबार को भेजने में कभी कभी तो आधी रात हो जाती थी. आज जो संचार माध्यम हैं वे तब कल्पनातीत रहे.
इसी भागदौड़ के बीच दूसरे टेस्ट के तीसरे दिन भारतीय उच्चायोग की और से होटल इंटर कांटिनेंटल में शाम को आयोजित चाय पार्टी की दावत में जब हमने टेबल पर दिल्ली के चांदनी चौक की किसिम-किसिम की मिठाइयां देखीं तो बड़ा अटपटा सा लगा. अमूमन ऐसी पार्टियों में एकाध मिठाई हो गयी तो ही बहुत. मगर वहां तो दर्जनों तरह की थीं. पूछा कि ये सब क्यों…? जवाब आया कि आज धनतेरस है…..याद आया, ओह …यानी दो दिन बाद दिवाली होगी..!! खैर, उसी रात पाकिस्तान के दिलीप कुमार यानी अभिनेता मोहम्मद अली और उनकी अभिनेत्री बेगम जेबां की और से दी गयी दिवाली की दावत में जी भर कर जश्न मना, खूब जाम भी छलके और मेंहदी हसन साहब की रूमानियत की चाशनी में लिपटी गजलों ने वाकई हम सभी को कभी न भूलने वाली इस रात की बेशकीमती सौगात भी दे दी.
दूसरी बार हमारा यह सबसे बड़ा त्यौहार १९८४ अक्टूबर में पड़ा. देश भक्त पाकिस्तानी अंपायरों के एक तरफ़ा फैसलों के बावजूद लाहौर में पहला टेस्ट बचाने के बाद बढ़े मनोबल के साथ भारतीय टीम पाकिस्तान के ‘मैनचेस्टर’ यानी टेक्सटाइल नगरी फैसलाबाद पहुंची थी. देश की सबसे बड़ी गल्ला मंडी के रूप में विख्यात यह शहर कभी लायलपुर के नाम से जाना जाता था. यहां के प्रसिद्द शीतला माता के मंदिर में विभाजन पूर्व हिंदू श्रद्धालु उत्तर भारतीय अपन बच्चों- बच्चियों की जात ( मुंडन ) देने आया करते थे, कभी यह अत्यंत जागृत स्थान हुआ करता था. अब वह मंदिर सीखचों में बंद था.
खैर, तय हुआ कि मनेगी दिवाली और भारतीय हाई कमीशन के अधिकारियों ने इस बावत सहयोग का अनुरोध स्वीकार कर झटपट सारा इंतज़ाम कर दिया. गणेश -लक्ष्मी की मूर्तियां भी एक भारतीय अधिकारी के घर से आ गयी थी और भारतीय टीम के कुछ खिलाडियों ने पत्रकारों के साथ कंधे से कंधा मिला कर सारा प्रबंध किया. कहने को तो तब फैसलाबाद पाकिस्तान के तीसरे सबसे बड़े नगर में शुमार था मगर आधुनिक सुविधाओं के लिहाज से वह कस्बाई ही था. कायदे का होटल न होने से टीम कोहेनूर टेक्सटाइल मिल के गेस्ट हाउस में ठहराई गयी थी. वहीं यह आयोजन रखा गया था…!! खूब धमाल हुआ. लक्ष्मी पूजन के बाद आतिशबाजी का भी इंतजाम था. हम सभी ने मिल कर फुलझड़ियाँ जलाईं और अंत में शानदार डिनर के साथ इस ज्योति पर्व का समापन किया. खास बात तो ये थी कि स्थानीय पुलिस- प्रशासन के अधिकारियों ने भी पूरी श्रद्धा के साथ सिर पर रूमाल रख कर पूजा के कर्मकांड में भाग लिया और कुरेद-कुरेद कर सारे विधि-विधान की जानकारी ली. उनके लिए यह सर्वथा नया अनुभव जो था. लेकिन सुबह पाकिस्तान के सबसे बड़े उर्दू दैनिक ‘जंग’ में प्रकाशित खबर ने सभी का स्वाद कसैला कर दिया. समाचार था- ”इंडियन टीम के हिंदू सदस्यों ने दिवाली मनायी”. इस समाचार ने इसलिए पाकिस्तानी पत्रकारों को भी शर्मिंदा कर दिया था कि उनमें कई, इस सारे आयोजन में खुद ही शामिल थे और उन्हें पता था कि इसके पीछे जिस भारतीय पत्रकार मुदर पाथरिया का दिमाग था वो मुसलमान था और जिन दो मेहमान खिलाडियों सैयद किरमानी और राजर बिन्नी ने विशेष भाग-दौड़ की थी, वे भी हिंदू नहीं थे. लेकिन दोष उस पत्रकार का नहीं था जिसने यह समाचार दिया था, दोष तो उस नफ़रत की घूंटी का था जो पाकिस्तान में पिलाई जाती है.