✍ पदमपति की कलम से
देश के महागुरू सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन के जन्म दिन अर्थात शिक्षक दिवस पर मुझे अपने अध्यापक अनुज राधेश्याम शर्मा की सुबह से ही रह रह कर याद आ रही थी. मै अगर यह कहूं कि हम महज भाई ही नहीं बल्कि एक दसरे की छाया थे, तो कहीं से भी गलत नहीं होगा. यूं तो राधे मेरी लेखनी में गाहे बेगाहे आता ही रहता है पर आज शिक्षक दिवस पर उसका पुण्य स्मरण बतौर पूर्ण समर्पित प्राध्यापक आवश्यक हो गया है.
काशी हिंदू विश्वविद्यालय से मध्यकालीन इतिहास में स्वर्ण पदक विजेता राधे जितना समर्पित छात्र या शोधार्थी था उससे भी कहीं बेहतर निष्ठावान वह अध्यापक था. बनारस से लगभग दस किलोमीटर दूर जगतपुर स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्रोफेसर हेड राधे ने अपने 29 बरस के कार्यकाल में शायद ही कोई एक दिन ऐसा रहा हो जब उसने विद्यालय जाने के पहले खुद होम वर्क न किया यानी पढ़ाई न की हो.
बतौर एक प्रखर प्रवक्ता, उसकी विशिष्ट पहचान थी और कहते हैं कि जिन विद्यार्थियों का इतिहास विषय नहीं होता था वे भी राधे का लेक्चर सुनने क्लास में मौजूद रहा करते थे. रजिया सुल्तान पर शोध के दौरान उसने एक मौलवी साहब से अरबी का बाकायदे साल भर तक ट्यूशन लिया था. यह दर्शाता है राधे की लगन को. आज जब मैं अध्यापकों को देखता हूं अध्यापन में उनकी बेपरवाही तो बरबस उसकी याद आ जाती है.
महज 22 की उम्र में डिग्री कालेज के छात्रों को पढ़ाने से उसमें एक अलग सी गंभीरता जरूर आ गयी थी पर वह उत्तरदायित्व बोध के चलते ज्यादा थी. आज के गुरुजन कितने नियमित हैं, यह हर कोई जानता है परंतु राधेजी इस मामले में भी अलग थे. बारिश ही उसे कालेज जाने से रोकती थी अन्यथा हमारे साथ भोजन के उपरांत ठीक साढ़े बारह बजे वह कालेज रवाना हो जाता था.
संयुक्त परिवार में मां और बच्चे भी साथ भोजन करते तो कोई राधे से बरसात को लेकर मजाक में कहता, ‘ छोटे पापा देखिए दूर कहीं छोटा सा बादल का टुकड़ा आकाश में नजर आ रहा है, बारिश की पूरी आशंका है’. राधे मुस्कुरा भर देता और कालेज चला जाता. असल में पढ़ाना उसके लिए जिम्मेदारी कम शगल ज्यादा था. उसको आनंद मिलता था. कई बार अपने नोट्स तैयार करके हमी को सुनाने लग जाता. क्या छात्र क्या साथी प्राध्यापक, क्या प्रधानाचार्य सभी उसके मुरीद हुआ करते थे. मोहल्ला हो या नगर का कंपनी बाग हर कोई उसको सुनने के लिए आतुर रहा करता था. अपना संपूर्ण जीवन ही उसने एक अध्यापक के तौर पर जिया जिसमें कहीं से भी बनावट नहीं दिली अपनत्व था.
एक पुत्र, एक भाई, एक मित्र, एक पिता, एक सच्चे- जानकार खेल प्रेमीऔर एक सहयोगी के रूप में यदि उसके बारे में लिखने बैठूं तो एक पूरा पोथा तैयार हो जाएगा. आगे परमात्मा ने मौका दिया तो मैं उसकी एक एक विशेषता पर लिखना चाहूंगा. लेकिन इस अवसर पर मै यही कह सकता हूं कि राधे जैसे आदर्श अध्यापक, गुरू की ही आज देश को जरूरत है. महज पंद्रह दिन की बीमारी में 17 बरस पहले राधे हम सभी को बिलखता छोड़ दुनिया से कूच कर गया. पर हमारी यादों में वह कभी दूर नहीं हुआ. काशी का सरस्वती फाटक – लाहौरी टोला मोहल्ला भी अपने राधे भैया या छोटे महाराज को आज भी याद करते नहीं अघाता. तुम जहां कहीं भी हो राधे, मैं जानता हूं कि तुम्हारा वहां भी प्रवचन चल रहा होगा. आमीन