मुकेश भारद्वाज

‘जो सुनते हैं कि तिरे शहर में दसहरा है
हम अपने घर में दिवाली सजाने लगते हैं’

कल की रात सबसे अंधेरी रात होती है। संस्कृति जब प्रकृति से समागम करती है तो उसे ही उत्सव कहते हैं। हमारी संस्कृति ने प्रकृति की सबसे अंधेरी रात को ही रोशन करने के लिए चुना। जो रात जितनी ज्यादा गहरी, उसमें उतना उजाला, इससे बेहतर मानव संघर्ष की तस्वीर क्या होगी। बुराई पर अच्छाई की जीत के बाद खुशियों की घर वापसी। अमावस्या की रात में यह उत्सव अंधेरे को पीछे छोड़ उजाले की ओर बढ़ने का संदेश देता है।

दशहरे के पहले फूले हुए कास बताने लगते हैं कि शरद ऋतु आ रही है। शेफालिका धरती पर गिर अपनी मादक गंध से सराबोर कर देती है। अंधेरी रात को महकाने के कारण ही उसे यह सम्मान हासिल है कि धरती से चुन कर देवताओं को अर्पित किया जाता है। दशहरे से लेकर दिवाली तक का सफर हमें बदलती हुई प्रकृति के लिए तैयार कर लेता है।

आज के समय में बदलते मौसम को अवसाद के साथ भी जोड़ा जाता है। महानगरीय जीवन में अपनी जड़ों से दूर, रोजी-रोटी की जद्दोजहद में लोग और परेशान हो उठते हैं। क्या करें, एक दशक के बाद मंदी का भी चक्र आ जाता है। ऐसे समय में इन उत्सवों का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। सांस्कृतिक रूप से चैतन्य दिमाग प्रकृति से ही बदलावों से लड़ने की ताकत हासिल करता है। प्रकृति और संस्कृति सबसे पहले मांग करती है स्वच्छता की। छज्जे के कोने पर पड़े पुराने एलबम की धूल झाड़ते हुए वह तस्वीर मिल जाएगी जिसमें मां ने नहला-धुला कर काजल का टीका लगा कर सोना-मोना बच्चा बना दिया है। चलो, बीच में वो फोटो मां को वाट्सऐप भी कर दिया, तो उधर से मां की आंखों की कोर भी भींग जाएगी। सूखते रिश्तों के लिए यह नमी कितनी जरूरी है।

कहते हैं कि परिवार पहली पाठशाला है। दादा और दादी दीपक के लिए बाती बनाते हुए ही घर के बच्चों को पूरी रामायण सुना देते हैं। इस बीच बच्चा पूछ बैठता है कि पूजा घर में रामायण और गीता तो है, महाभारत क्यों नहीं है? दादी चेहरे पर शिकन के साथ बताती हैं कि महाभारत को घर में नहीं रखते, उससे झगड़ा होता है। घर में महाभारत नहीं है लेकिन दादी महाभारत की पूरी कहानी सुनाती हैं, जैसे कि कभी उनकी दादी ने सुनाई होगी। दादी जानती हैं कि हर महाभारत घर से शुरू होती है। घर में वैमनस्य बढ़ता है तो पूरा देश और समाज नष्ट होने पर आ जाता है। दादी भी अपने पूर्वजों से सुना हुआ ज्ञान आगे की संतति को देती हैं कि जो महाभारत में नहीं है वह भारत में नहीं है। उत्सवों का समय संस्कृति की पुनर्गाथा का भी समय होता है।

आज सोनाक्षी सिन्हा इंटरनेट पर इसलिए ट्रोल हो जाती हैं कि वे टेलीविजन कार्यक्रम में यह नहीं बता पातीं कि हनुमान किसके लिए संजीवनी बूटी लाए थे। लेकिन सोनाक्षी को ट्रोल करने वालों ने क्या कभी यह सोचा कि हमने अपने बच्चों से एक साथ बैठ कर अंतिम बार सांस्कृतिक इतिहास पर कब बात की है? चाइनीज झालरों पर बहस के बीच मिट्टी के दीपक की जरूरत पर बहसतलब कब हुए हैं? एक दीपक बनाने वाले और हमारे घर में रोशनी का क्या संबंध है। वर्गीय ढांचे किस तरह एक-दूसरे से अन्योन्याश्रित हैं।

अमर्त्य सेन के बाद ऐन दीपावली के पहले भारतीय मूल के अर्थशास्त्री को नोबेल मिलने की खुशखबरी भी आ गई। सामाजिक समरसता और बराबरी का बोध कराने वाली दीपावली की रंगोली बनने के साथ अभिजीत बनर्जी प्रधानमंत्री से लेकर जेएनयू के आम छात्रों से चर्चा कर रहे थे। अमर्त्य सेन से लेकर अभिजीत बनर्जी उस अर्थव्यवथा की बात करते हैं जो अंतिम आदमी तक की सोचे। त्योहारों का ही वह समय होता है जब हम अपनी चारदीवारी से निकल दूसरों के जीवन में प्रवेश करते हैं। रंगाई-पुताई से लेकर दीपक बनाने वाले, खील-बताशे बनाने वाले, पूजा सामग्री तैयार करने वाले सब बेसब्री से इस समय का इंतजार करते हैं। दिवाली के नाम पर ही आप रंग-रोगन करवाएंगे तो वो कारीगर अपने बच्चों के नए कपड़े सिलवाने के लिए दर्जी के पास जाएगा। दर्जी अपने घर को रोशन करने के लिए कुम्हार के पास जाएगा और दिवाली तो कुम्हार को भी मनानी है तो वो हलवाई के पास जाएगा। यह सब उसी जज्बे के लिए कि सबसे अंधेरी रात को सबसे रोशन करना है।

पिछले तीन सालों से उत्सवों पर अगर चीनी उत्पादों के लिए गुस्सा था तो इसलिए कि हमारे घरेलू कारीगर मारे जा रहे हैं। चीन के कारखानों में बने लक्ष्मी-गणेश हमारे कुम्हार के साल भर की आमदनी छीन रहे हैं। सस्ते चीनी सिल्क के सामने हैंडलूम के मुश्किल रख-रखाव को कौन पूछे। विश्व व्यापार संगठन के समझौते अपनी जगह होंगे, लेकिन घरेलू जमीन पर हम अपनी जंग क्यों छोड़ दें। इस बार बाजार में अगर कोई दुकानदार अपने ग्राहक से कह रहा है कि बहनजी, ये चीन की बनी मूर्ति नहीं, मेड इन इंडिया है और ग्राहक भी इस बात पर वही मूर्ति खरीदारी वाले डलिए में रख रही तो इसके कुछ मायने हैं। महात्मा गांधी ने जब स्वदेशी आंदोलन छेड़ा था तो आम भारतीयों द्वारा उठाए छोटे-छोटे कदमों ने ब्रितानी पूंजीपतियों के होश उड़ा दिए थे। महात्मा गांधी को भारत में छिड़े स्वदेशी आंदोलन के कारण ब्रिटेन में कपड़ा मिल में काम करने वाले लोगों की दुर्दशा के बारे में दिखाया गया तो उनकी यही प्रतिक्रिया थी कि भारत की गरीबी तुम लोगों ने देखी नहीं है। उत्सवी धुन है कि एक छोटे दुकानदार में यह चेतना है कि उसकी मिट्टी से जुड़ा जो कारीगर है उसका सामान बिकना चाहिए, उसकी दिवाली भी होनी चाहिए।

भारत जैसे विकासशील देश में जहां मध्यम से लेकर कमजोर तबके पर किसी न किसी चीज की मार पड़ती रहती है, उत्सवधर्मिता ही वह चीज है जो सारी परेशानियों को पीछे छोड़ फिर से जीने का मौका देती है। रामलीला हो या दशहरे का मैदान, यहां लगने वाले मेलों में असली हिंदुस्तान दिखता है। यह वह हिंदुस्तान है जो आमदनी रुपया तो खर्चा अठन्नी में यकीन करता है। हो सकता है कि घर के मुखिया पुरुष या स्त्री के पास नौकरी न हो, पिछली छूट गई हो और नई मिलने की उम्मीद हो, इन सबके बीच भी वह पिछली कमाई की बचाई अठन्नी में से परिवार के साथ मेला घूमने जाता है, दिवाली में दीपक और बताशे खरीदता है।

मंदी वैश्विक बाजार का दिया शब्द है। आज जब वैश्विक दुनिया की मौत की भविष्यवाणी की जा रही है, कल तक दुनिया के बेताज बादशाह ब्रिटेन के पूरे वजूद पर ब्रेग्जिट प्रश्नचिह्न लगा चुका है, उस वक्त हम राम और बुद्ध की अपनी विरासत की तरफ देखते हैं। उपवास और तपस्या कर शरीर को कठिनतम के लिए तैयार करना हमने अपने पुरखों से सीखा है। अभाव के कारण अवसाद में जाकर जेहनी मरीज बनने से बेहतर है उस भाव में पहुंचना कि ‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा’। ‘कभी घी घना, कभी मुट्ठी भर चना और कभी वो भी मना’ की लोकोक्ति सुनते हुए जो बड़ा होगा वह जीवन में आई कमियों को लेकर कभी हतोत्साहित नहीं होगा।

जिसने अंधकार को नहीं देखा वह कभी उजाले की अहमियत नहीं जान पाएगा। अंधकार के खिलाफ उम्मीदों की रोशनी वह जीवनगीत है जो हमारी प्रकृति और संस्कृति ने हमें दिया है। रात जितनी गहरी होती है दीपक उतना ज्यादा जगमगाता है। राजनीतिक और सामाजिक विमर्शों के अतिवादों के इस दौर में हमारी सांस्कृतिक विरासत एक सुकून का मरहम लगाती है। आइए, दिवाली का दीप जला इस अंधेरे समय को सबसे ज्यादा जगमगा दें। उम्मीदों की रोशन रात मुबारक हो। शुभ दीपावली।

‘आज की रात दिवाली है दीये रोशन हैं आज की रात ये लगता है मैं सो सकता हूं’।

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