“जिनके मन राम विराजे, सकल होत सब काम”
पदम पति शर्मा
(प्रधान संपादक)
यूँ तो सूर्य की प्रत्येक किरण सार्थक और चरितार्थ हैं परंतु 477 वर्ष पहले शाम 4 बजकर 40 मिनट से 41 मिनट तक अर्थात 60 सेकेंड का ‘महेंद्र क्षण’ निश्चित रूप से अमूल्य निधि रहा होगा, जब अस्ताचलगामी भगवान भास्कर की रक्तिम आभायुक्त किरण ने काशी के नाटी इमली भरत मिलाप को लालिमा स्नात किया था।

“रामायण का महामिलन ही भरत मिलाप है”
गोस्वामी तुलसीदास की ‘राम दर्शन शाखा के प्रिय पात्र अंतज नारायण दास ने, जिनको महाकवि प्यार से मेघा भगत के नाम से पुकारते थे, प्रभु कृपा प्राप्त की। अंतर्मन को आदेश मिला था, “किस रूप में देखना चाहते हो?” भगत ने विनती की, ‘महामिलन के रूप में’। प्रभु ने कहा, “रामायण का महामिलन ही भरत मिलाप है”। भगत ने अपने समस्त संबलों को एकत्र कर नाटी इमली के वन में भरत मिलाप की व्यवस्था की थी। पृथ्वी ने इसके बाद सूर्य की 477 परिक्रमा समाप्त कर ली। प्रत्येक परिक्रमा में सूर्य इस दिन की बेसब्री से प्रतीक्षा करता चला आ रहा है । क्योंकि इस महामिलन का वह हमेशा से साक्षी रहा है और एक बार भी वह बादलों की ओट में नहीं छिपा। आज भी तो यही हुआ। नाटी इमली के भरत मिलाप की यही अलौकिकता ही इसे अन्य रामलीलाओ से इतर करती है। यह अद्वितीय है, अद्भुत है, आध्यात्मिक है।

यह समावेश भीड़ नहीं बल्कि श्रद्धा संगम था
बनारस की आबादी आज लगभग 25 लाख के करीब है। उनमें से असक्षमों की संख्या घटा देने की स्थिति में शेष जो संख्या बचती है, वह दशहरे के दूसरे दिन चल पड़ती है नाटी इमली की ओर। एक छोटे से मैदान में गाजर-मूली जैसे भरने की स्थिति में अधिकाधिक पचास हज़ार लोग खड़े हो सकते हैं। अगल बगल के घरों की छतों को भी जोड़ दिया जाए तो पचास हज़ार की संख्या और बढ़ गई थी। यह समावेश भीड़ नहीं बल्कि श्रद्धा संगम था। हाथों को गिनने के लिए पुलिसिया बंदोबस्त की कोई आवश्यकता नहीं पड़ी। क्वार की चिलचिलाती धूप में 32 डिग्री सेल्शियस तापमान और 78 प्रतिशत आद्रता के बावजूद सुबह से श्रद्धालु दिन भर तपस्या करते रहते थे। उस ब्रह्म मुहूर्त की जो दिवस के अवसान पर आने वाला था।

यह वस्तुतः जीवात्मा का परमात्मा से मिलन बिंदु है
साल में 364 दिन काशी में ‘सुबहे बनारस’ होता है। मात्र देवी पक्ष की एकादशी पर यह ‘शामें बनारस’ हो जाती है। हमेशा की तरह आज भी कोई अपवाद नहीं हुआ। सामान्यजन के लिए भले ही भरत मिलाप लीला की एक झांकी मात्र हो, मगर कबीर की काशी में माना जाता है कि यह वस्तुतः जीवात्मा का विश्वात्मा से मिलन बिंदु है। “टूटा घट जल जलधि समाना”। वातावरण हो उठा था राममय जब मर्यादा पुरषोत्तम की सवारी पुष्पक विमान (रथ) से आ पहुंची नन्दी ग्राम (जहां अग्रज वियोग से आहत भरत ने 14 वर्षों तक तपस्वी जीवन व्यतीत किया था)।

इसी अलौकिक छटा देख कर निहाल हो उठा था जनसैलाब
अतीत के वर्षों की तरह इस सोलह दिवसीय चित्रकूट (वाराणसी) रामलीला के भरत मिलाप की लीला शिव वंदन से शुरू हुई। यहां काशीराज ही लोकायत देव शिव के प्रतिनिधि होते हैं। पूर्व काशी नरेश विभूतिनारायण सिंह के देहावसान के बाद अब उनके पुत्र कुंवर अंनतनारायण सिंह शाही कार से अयोध्या (लोहटिया स्थित बड़ा गणेश मंदिर) पहुंचे और वहां से हाथी पर सवार उनका काफिला एक किलोमीटर की दूरी तय करते हुए सड़क के दोनों ओर उपस्थित लाखों शश्रद्धालुओं के हर-हर महादेव उद्घोष के बीच लीला स्थली पहुंचा। वहां कुंवर को परम्परानुसार पुलिस गारद ने सलामी दी। और फिर उसके बाद आ गया वह अलौकिक क्षण जब एक छोर में भावविभोर श्री राम व लक्ष्मण और दुसरे छोर से भरत व शत्रुघ्न मंच की ओर अग्रसित हुए। इसके बाद चारों भाई आलिंगनबद्ध हो गए। सूर्य ने इसी समय इन चारों भाईयों के मुख मंडल को दैदीप्यमान कर दिया। और इसी अलौकिक छटा देख कर निहाल हो उठा जनसैलाब। जिसने ये दृश्य कभी नहीं देखा उसे ये पढ़कर अविश्वनीय लगेगा लेकिन जिसने इन क्षणों को हृदय में कैद किया वह इन स्वरूपों के दिव्य आभा मंडल की अनुभूति शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता, सिर्फ महसूस कर सकता है। गालों पर बहते प्रेमाश्रुओं के बीच बोले ‘राजा रामचन्द्र की जय’ के गगनभेदी उद्घोष से समूचा वातावरण गुंजति हो उठा।

राम का रथ मानो हेमलिन का बाँसुरी वादन था
ये अविश्वसनीय क्षण कुल एक मिनट के थे और इसके पश्चात प्रारंभ हुई चारों भ्राताओं की अयोध्या यात्रा, पुष्पक विमान रथ की हमेशा की तरह आज भी सैकड़ों की संख्या में यादव बंधुओं ने अपने कंधों पर उठाकर रामलीला भवन अयोध्या (बड़ागणेश) ले गए।। समूचे रास्ते पुष्प वर्षा से नहाता हुआ रथ अयोध्या पहुँचा। उधर कुंवर अंनत नारायण प्रस्थान कर गए रामनगर की ओर जहां भी आज यही लीला होनी थी। लेकिन नाटी इमली के चलते रामनगर का भरत मिलाप अर्द्धरत्रि में महताबी की नीली रोशनी के बीच होना है। राम का रथ मानों हेमलिन का बांसुरी वादन था, जिसके पीछे नँगे पाँव हाथ जोड़े, श्री राम का उद्घोष करते चल रही थी भीड़।

टेकराम की पीछे मुड़ कर देखती मूर्ति भी शायद यही कह रही है……!
नाटी इमली के एसी लीला के हनुमान स्वरूपधारी टेकराम को इसी भरत मिलाप के अवसर पर सन 1868 में तत्कालीन अंग्रेज जिलाधीश मैकफर्सन ने जब व्यंग्य भरे स्वरों चुनौती दी थी कि हनुमान ने तो महासागर लांघा था क्या वह वरुणा नदी को लांघ सकता है, तब टेकराम ने परिणाम की परवाह किए बिना राम हुंकार भरी और सभी ने देखा टेकराम उसपार पहुंचकर स्वयं ही अविश्वास से भरे ज़िलाधीश की ओर मुड़ कर देख रहे हैं। ततपश्चात उन्होंने इस भौतिक देह को त्याग दिया। आखिर यह क्या और क्या अब भी आप इसे कोरा अंधविश्वास कहेंगे, महामिलन के क्षणों के दौरान सूर्य ने कभी बादलों की ओट नहीं ली, इस अलौकिकता को भी क्या आप यूँ ही खारिज कर देंगे? आचार्य प्रवर पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी इन क्षणों को यूं ही जीव और परमात्मा का मिलन नहीं कहा करते थे, नरहरिपुर मन्दिर में रखा टेकराम का मुकुट और चेहरा आज भी पूजा जाता हैं। वरुणा के उस पार टेकराम की पीछे मुड़कर देखती मूर्ति भी शायद यही कह रही है कि काशी में रघुनन्दन राम, सीतापति राम के साथ-साथ एक अंतरात्मा भी है। जिसे मन की आंखों से हमेशा देखा जा सकता है और इस विश्वास के साथ जिया जा सकता है “जिनके मन राम विराजे, सकल होत सब काम”।